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संति-शमनं शांति:-“अशेषकर्मापगमोऽतो मोक्ष एव शांतिरिति” । मरणं-मृयते प्राणिन: पौन:पुन्येन यत्र चतुर्गतिके संसारे स मरणः । ९ इत्यादि
पंचम उद्देशक में भिक्षा की गवेषणा आम-गंध परिज्ञान, क्रयादिनिषेध, कालादिज्ञान, निर्ममत्व, आहार विधि, धर्मोपकरण का अपरिग्रहत्व, संकल्पों का त्याग आदि दिया गया है। षष्ठ उद्देशक में ममत्व बुद्धि के त्याग पर बल दिया गया है एवं इसी में वृत्तिकार ने लोक संज्ञा को गृहस्थ लोक संज्ञा कहा है।२० शीतोष्णीय अध्ययन
इस अध्ययन में चार उद्देशक हैं। इसके प्रथम उद्देशक में भाव-जागरण से पूर्व जीवों के लिए यह बोध कराया गया है कि सभी प्रकार के परीषह दुःखरूप हैं, उनके त्याग से व्यक्ति जागृत होता है, अज्ञानता के अभाव का नाम जागरण है।
सुत्ता अमुणी सया मुणिणो जागरंति-वृत्तिकार ने इस मूल सूत्र पर द्रव्यसुप्त और भावसुप्त की दृष्टि से व्याख्या की है । जो अमुनि/अज्ञानी होते हैं, वे जागते हुए भी सोए हैं और जो धर्म में लगे हुए हैं, वे जागरणशील ज्ञानी हैं, मुनि हैं। मिथ्यात्व रूपी अज्ञान से घिरे हुए भावसुप्त आत्माएँ सम्यक्त्व को नहीं जान पाती हैं इसलिए . वृत्तिकार ने यह कथन किया कि विवेकी लोक को जानकर इष्ट व अनिष्ट को समझे तथा समदर्शी बना रहे।
इसके द्वितीय उद्देशक में समदर्शी के स्वरूप पर विचार किया गया है और इसी में यह भी उपदेश दिया गया कि तत्त्वज्ञानी मोक्ष के मार्ग को जानकर पाप नहीं करता है।
___ "समत्तदंसी न करेइ पावं" इस सूक्ति के अनन्तर निष्कामदर्शी, लोकदर्शी. परमदर्शी आदि की व्याख्याएँ की हैं और इसी के तृतीय उद्देशक में सत्य और संयम की विशेषताओं को ग्रहण करने के लिए क्रोध, मान, माया और लोभ से हटने की बात कही गई है। शीतोष्णीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में कषाय, त्याग एवं कर्मबंधन, परमार्थ आदि के विषय में विस्तार से विवेचन किया गया है।
जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ जे सव्वं जाणड से एगं जाणइ। २२
इस सूत्र की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने कहा है कि वस्तुतत्त्व का वास्तविक स्वरूप एक के जानने में ही है और जो एक को जानता है, वही उसके निज व पर स्वरूप को जानता है।
सम्यक्त्व अध्ययन–इस अध्ययन में भी चार उद्देशक हैं। ये चारों ही अध्ययन भाव पर बल देते हैं।
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