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________________ माया मेत्ति पिया मे भगिणी भाया य पुत्तदारा मे, अत्यंमि चेव गिद्धा, जम्मणमरणाणि पावंति ॥ १४ इसके द्वितीय उद्देशक में अरतिनिवारण व उसकी व्याख्या, अनाज्ञावर्ती की उभय-भ्रष्टता, संसारविमुक्त स्वरूप, अनगारस्वरूप, अज्ञानीस्वरूप और ज्ञाता के कर्त्तव्य को भली-भाँति व्यक्त किया गया है । वृत्तिकार ने शरीर की अवस्था को चार विशेषताओं से पालन करने के लिए कहा है, परन्तु जो व्यक्ति प्रथम अवस्था में अध्ययन नहीं करता, द्वितीय अवस्था में धन नहीं कमाता और तृतीय अवस्था में तप नहीं करता, वह चौथी अवस्था में क्या कर सकेगा? इसके लिए इस प्रकार की सूक्ति दी है— प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीये नार्जितं धनम् । तृतीये न तपस्तप्तं चतुर्थे किं करिष्यति ।।' १५ इसी प्रसंग में वृत्तिकार ने यह भी कथन किया है कि शरीर अवस्था कौमार, यौवन और स्थविर के भेद से तीन प्रकार की है । पिता रक्षति कौमारे, भर्त्ता रक्षति यौवने । पुत्राश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति ॥१६ इसी तरह बाल, मध्य और वृद्ध के भेद से भी तीन भेद किए हैं। बाल्यावस्था सोलह वर्ष तक व उसके बाद मध्यम अवस्था तथा सत्तर वर्ष की अवस्था वृद्ध रूप है। अज्ञानी मोह से आसक्त होता है, वह ज्ञान के अभाव में किसी भी अवस्था को नहीं जान पाता है, इसलिए वृत्तिकार इस बात की ओर संकेत करते हैं कि जो मनुष्य अज्ञानता से रहित हैं, वे ही पारगामी हैं। संसार - सागर से पार होते हैं । " पारं - ज्ञान - दर्शन - चारित्राख्यं”१७ । इसके तृतीय उद्देशक में गोत्राभिमान - परिहार, कर्म-फल का द्रष्टा, मोक्षाचारी का स्वरूप, मृत्यु की अनियमितता, जीवन-प्रियता, धन-संग्रह का परिणाम, विज्ञ को अनुपदेश, अज्ञानी का संसार-भ्रमण आदि के कारणों पर प्रकाश डाला गया है, इसी में “उद्दिष्यते इत्युद्देशः -उपदेशः सदसत्कर्त्तव्यादेश: "१८ जहाँ सत् और असत् कर्त्तव्य का आदेश उद्देश है, जो इसको देखता है, वह पश्यक है “पश्यतीति पश्यकः” 'सर्वज्ञस्तुदुपेशवर्ती वा तस्य उद्दिष्यत इत्युद्देशो” इस भाव से वृत्तिकार ने उद्देश के महत्व को सर्वज्ञ के रूप में प्रस्तुत किया है । चतुर्थ उद्देशक में भोग से व्याधि, अशांति, धन विभाग होने की बात कही गई है। इसमें आशाओं का त्याग, आसक्ति आदि पर विचार किया गया है । मूल आचारांग के शब्दों को व्युत्पत्ति के रूप में भी दिया गया है। यथा— (२७) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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