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________________ इस प्रश्नोत्तर शैली के उपरान्त वृत्तिकार ने नौ प्रकार की सामाजिक चेतना को अभिव्यक्त किया है। इस अभिव्यक्ति में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्ण व्यवस्था को देकर लौकिक और लोकोत्तर चारित्र की विशेषता को प्रस्तुत किया है। तदुपरान्त एक श्रुतस्कन्ध के गुणचरण की दृष्टि को नौ अध्ययन तक दी गई हैं। जो मूलोत्तर गुण के स्थापक हैं, यही आयार है अर्थात् आचारांग है। पूर्व पीठिका के रूप में आचार की विवेचना के पश्चात् नौ प्रकार के अधिकारों पर विस्तृत व्याख्याएँ दी गई हैं। सत्य-परिणा-शस्त्रपरिज्ञा के प्रथम अधिकार में जीव एवं प्राणीमात्र के संरक्षण का कथन किया गया है, जीवादि के अस्तित्व का परिज्ञान होने पर निश्चित ही जीव संरक्षण होता है, वह परिज्ञा द्रव्यपरिज्ञा व भावपरिज्ञा के रूप में जगत के सामने आती है, द्रव्यपरिज्ञा सचित्त का निषेध करती है और भावपरिज्ञा मन, वचन, काय की गतिशीलता पर विराम देती है। अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस जीवों के संरक्षण पर बल देती है। वृत्तिकार ने शस्त्रपरिज्ञा की विस्तृत व्याख्या में जीवों की योनियाँ, उनके सुख-दुःख, उनकी उत्पत्ति, उनके स्थान आदि पर विचार करते हुए यह शिक्षा दी है कि ज्ञान क्रिया से परिज्ञान से या अनुभूति से कर्म समारम्भ रुकता है। “ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः”१३ यह वाक्य इस बात का संदेश देता है कि जिन्होंने ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के समारम्भ/कर्मसमारम्भ को पूर्णरूप से जान लिया है, वह कर्मबंधन से छूटता है व उसे ही मुक्ति होती है। इसके व्यापक वर्णन में सम्पूर्ण पृथ्वी से लेकर वनस्पति के ज्ञान-चेतना पर प्रकाश डाला गया है। इसके मूल में जो कुछ भी समाहित है, उसका सात उद्देशकों में धर्म-दर्शन की दृष्टि से विवेचन किया गया है, जिससे शस्त्रपरिज्ञा के सूत्रों का पूर्ण रूप से ज्ञान होता है। लोक विजय अध्ययन इस अध्ययन में छह उद्देशक हैं। इसके प्रथम उद्देशक में गुण और मूल स्थान की एकता, इन्द्रियों की शिथिलता, वृद्धत्व में अवगणना, अप्रमाद, संसारासक्ति, धन की अशरणता, स्वकृत कर्म-फल और यौवन में धर्म उद्यम के विषय को स्पष्ट किया गया है। संसार का कारण कषायोदय है और उसके मूल में आठ प्रकार के कर्म हैं, उसके स्थान कामगुण को उत्पन्न करते हैं। मूल और गुण दोनों की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने यह भी कथन किया है कि मूल शब्दादि हैं और स्थान कषाय हैं, इनसे संसार बनता है। संसार नारक, तिर्यंच, नर और अमर का नाम है । माता-पिता, भाई-बहिन आदि का स्नेह भी संसार है। इस संसार की समाप्ति से मूल गुणों की उत्पत्ति होती है, अन्यथा जन्म-मरण आदि ही उत्पन्न होते रहते हैं। कहा है संसारं छेत्तुमणो कम्मं उम्मूलए तट्टाए, उम्मलिज्ज कसाया तम्हा उ चइज्ज सयणाई। (२६) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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