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लोकसार अध्ययन
इस अध्ययन में छह उद्देशक हैं। मूलतः इसमें संसार परिभ्रमण के कारणों पर प्रकाश डाला गया और अंतिम उद्देशक में राग-द्वेष, कषाय एवं विषय आवर्त की विमुक्ति हेतु संवर एवं निर्जरा पर बल दिया गया है। कर्म निर्जरा होने पर जीव मुक्त होता है। मुक्त अवस्था में किसी भी प्रकार का रूप, रस, गंध आदि नहीं रहता। धूत अध्ययन
इस अध्ययन में पाँच उद्देशक हैं। वृत्तिकार ने धूत शब्द की व्याख्या करते हुए कथन किया है कि धूत का अर्थ धुनना या धो डालना है, वह दो प्रकार का है-द्रव्य-धूत व भाव-धूत । वस्त्र आदि को धोना, उसका मल दूर करना द्रव्य-धूत है और आत्मा पर लगे हुए आठ कर्मों को धुनना भाव धूत है। कहा भी है
उवसग्गा सम्माणयविहूआणि पंचमंमि उद्देसे दव्वधुयं वत्थाई भावधुयं कम्म अठविहं ।२३
धूत अध्ययन के मूल सूत्र में जो गंडी, कोड़ी, राजांसि, मूर्छा आदि रोगों का कथन किया गया है, उन सभी सोलह रोगों की वृत्तिकार ने विस्तृत व्याख्या की है। वे रोग कैसे तथा किस कारण से होते हैं। इसका भी कथन किया है। उदाहरण के लिए मधुरोग को लिया जा सकता है, उसे वस्तीरोग कहा है। वस्तीरोग या मधुरोग शक्कर की अधिक मात्रा से होता है, यह रोग भी बीस प्रकार का है। मधुमेह के कारणों व उससे होने वाली व्याधियों को भी स्थान दिया गया है। इसी धूत अध्ययन में योनि दृष्टि को भी निरूपित किया गया है। प्रत्येक जीव की अलग-अलग योनियाँ हैं, उनमें दुःख-सुख का अनुभव होता है।
बाल्यकाल से लेकर रोगों से शोक, वियोग, दुर्योग व दोष आदि होते हैं। ये मृत्युपर्यंत रहते हैं। प्रत्येक योनि में बहुत दुःख हैं, कर्म करने में भी दुःख हैं, बल की कमी होने में भी दुःख हैं अर्थात् बाल्यावस्था से लेकर अंत तक अनेक रोगों से घिरा हुआ जीव चिकित्सा के लिए आतुर रहता है, अतः जीव को आत्मा की वास्तविकता जानने के लिए धर्माचरण की ओर प्रवृत्ति आवश्यक है। अठारह शील गुणों से अलंकृत व्यक्ति सम्यक्त्व को प्रकाशित करता है, अतः सम्यक्त्व के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। महापरिज्ञा अध्ययन
इस अध्ययन को प्रायः लुप्त माना गया है, वृत्तिकार ने भी यह स्पष्ट करते हुए अष्टम अध्ययन की ओर अपनी दृष्टि विस्तृत की है। सप्तम अध्ययन महापरिज्ञा का अध्ययन है, यह अध्ययन व्युच्छिन्न है ।
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