________________ अपनाया है उसके आधार पर इसकी भाषा का स्वतंत्र विवेचन होना चाहिए। तभी इस आगम के रहस्य का पता चल सकेगा। श्रमणाचार और श्रावकाचार-ये आचार के दो प्रमुख क्षेत्र हैं। वृत्तिकार ने श्रमणाचार से सम्बन्धित मूलगुणों, उत्तरगुणों आदि की विस्तार से विवेचना की है। श्रमण का स्वरूप, श्रमण के भेद, श्रमण की चर्या, विहार, शयन-आसन आदि के विवेचन इसमें विद्यमान हैं। ये विवेचन आधार की पृष्ठभूमि को सुदृढ़ बनाने वाली हैं। वृत्तिकार ने आचार विषयक इस आचारांग के साधना तत्त्व को अधिक उपयोगी बतलाया है। श्रमण के आश्रम परिज्ञान के परिचायक हैं। उनका जीवन संयमी है। अहिंसक उनकी वृत्ति है और सदाचार एवं समभाव उनके बल हैं। __ आचारांग में श्रमण चर्या का सूक्ष्म विश्लेषण है। गृहस्थ सम्बन्धी विवेचन प्रसंगवश कहीं-कहीं ही आया है क्योंकि आचारांग श्रमणाचार की भूमिका को प्रस्तुत करने वाला आगम है। गृहस्थाचार या श्रावकाचार इसका विषय नहीं है परन्तु व्रती श्रावक श्रमणवत् आचरण करता है। उसके लिए धर्म, ध्यान, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, त्याग, संयम, समत्व आदि सारभूत हैं। कहा है “लोगस्स सार धम्मो, धम्मपि य नाण सारियं बिंति / नाणं संजमसारं संजमसारं च निव्वाणं // 116 अर्थात-संसार में सारभूत वस्तु धर्म है। धर्म ज्ञान है. ज्ञान का सार संयम है और संयम का सार निर्वाण है। दोनों ही आचार-विचार वाले व्यक्ति मुक्ति चाहते हैं। संसार से छूटना चाहते हैं। अतः आचार एवं विचार सभी दृष्टियों से सभी के लिए हितकारी है। इस तरह से सम्पूर्ण आचारांग वृत्ति के विषय की विशेषताओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचारांग वृत्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की प्रबल भावना से जीवन दान देने वाली वृत्ति है। 000 258 आचाराङ्ग-शीलावृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org