________________ अध्यात्म और तत्त्वज्ञान का परिचायक यह ग्रन्थ धर्म की मूल भावना से व्यक्ति को जोड़े रखता है। इसमें किसी व्यक्ति, समाज एवं वर्ग को महत्त्व नहीं दिया गया है। यह तो प्राणीमात्र के धर्म का मूल उद्घोषक है। इसकी अहिंसा में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस के प्रति भी मानवीयता दृष्टिगोचर होती है। व्यक्त या अव्यक्त आत्माओं के प्रति अहिंसक रहने का मंत्र इसी से प्राप्त होता है। इसमें सूक्ष्म जीवों की यतना पर विचार है। यह भावों की विशुद्धता का सजग पहरी है। अन्तरवृत्तियों में अहिंसात्मक धर्म इसका प्राण तत्त्व है। यह मर्मस्पर्शी धर्म और दर्शन का संक्षिप्त सार है, अङ्गों का सार है, आचार का सार है, दर्शन तत्त्व का प्रतिपादक है। चारित्र इसकी विशेषता है / निर्वाण सर्वोपरि है क्योंकि यही अव्याबाध तत्त्व है। आचार-विचार प्रधान यह वृत्ति है। इसमें सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक आदि के परिचायक ज्ञान को भी देखा जा सकता है। मैंने इसमें श्रमणाचार, श्रावकाचार, जाति, कुल, मान्यताएँ, खान-पान, निवास, विवाह, व्यापार, कला आदि का मात्र संकेत ही किया है। यद्यपि यह वृत्ति, सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना करने वाला महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस पर स्वतंत्र रूप से अनुसन्धान करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। क्योंकि इसमें ज्ञान-विज्ञान एवं भारतीय समाज का प्राचीन स्वरूप विद्यमान है। शीलांक आचार्य ने इसके प्रथम परिचय में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन जातियों के अतिरिक्त आर्य और अनार्य आदि की दृष्टि से नय एवं निक्षेप के आधार पर अम्बष्ठ, उग्र, निषाद, अयोगव, मागध, सूत, क्षता, विदेह और चाण्डाल आदि की दृष्टि पर भी विचार किया है, जिसका विस्तार से विवेचन अध्याय पाँच में किया गया है। .. अङ्ग आगमों का यह प्रथम ग्रन्थ अर्धमागधी भाषा में है, जिसे आर्षप्राकृत कहा जाता है / वृत्तिकार ने आर्ष परम्परा की भाषा को जीवित रखते हुए सम-सामयिक दृष्टि से संस्कृत भाषा को आधार बनाया है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा सूत्रात्मक, विश्लेषणात्मक, पारिभाषात्मक, विवेचनात्मक एवं व्युत्पत्तिजन्य अर्थों को लिये हुए है। धार्मिक एवं दार्शनिक विश्लेषण में शीलांक आचार्य ने दृष्टान्त प्रधान शैली को अपनाया है। यह एक ऐसी शैली है जिसमें मूल विश्लेषण के साथ विवेचनकर्ता की भावना भी परिलक्षित दिखाई पड़ती है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में शीलांक आचार्य ने विषय को विश्लेषित किया है जिससे भाषा मूल अर्थ तक सिमट कर रह गई हैं। कहीं-कहीं पर शब्द विश्लेषण की प्रधानता है। शब्द के अर्थ संस्कृत के मूल में बँध कर ही रह गये हैं। भाषात्मक अध्ययन में संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, कृदन्त, तद्धित, अव्यय आदि की विशेषताओं को नहीं गिनाया परन्तु उनकी जानकारी देने का प्रयास किया है। मेरा यह मत है कि शीलांक आचार्य ने अपने समग्र विवेचन में जो निक्षेप शैली को आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन 257 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org