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________________ 4. परमार्थदृष्टा धीर-वीर एवं ऐश्वर्य युक्त होता है। 5. लोक का सार ज्ञान है और सम्यक्त्व मुक्ति का सार है। 6. पराक्रम श्रमणों का अध्यवसाय है, आज्ञाधर्म है और सद्गुणों का विकास दृढ़ता का प्रतीक है। 7. महापरिज्ञा साधना की उत्कृष्ट दशा है। 8. सहिष्णुता सम्पूर्ण गुणों से प्रकट होती है। यह सम्यक्त्व की अन्तःक्रिया है। विमोच इसका अन्तिम परिणाम है। 9. चर्या, शय्या, परीषहजय और तपस्चर्या वीरत्व का. उपधान है। ____ आचारांग वृत्ति के प्रथम श्रुतस्कन्ध में नौ अध्ययन हैं, इन सभी पर विचार करने से यह बोध प्राप्त हुआ है कि आचारांग में आचार-विचार आदि से सम्बन्धित ज्ञान-विज्ञान की मुक्ताएँ हैं जो प्रबुद्ध पाठकों के लिए आचार-विचार से जोड़ती हैं, उन्हें आकर्षित करती हैं और सम्यक्त्व का पथ बतलाती हैं। यही कारण है कि शीलांक आचार्य की वृत्ति के अर्थ को समेट कर जो चिंतन एवं मनन के मन्थन से नवनीत मिला है वह स्निग्ध होते हुए भी विविध दिशाओं को प्रदान करने वाला अवश्य बन सकेगा। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के चिंतन से. आहार शुद्धि, संयम साधना के साथ स्थान शुद्धि, गमनागमन का विवेक, भाषा शुद्धि, मर्यादित वस्त्र, पात्र की अनुकूलता, योग्य आवास, स्वाध्याय, ध्यान एवं विविध प्रकार की भावनाओं से श्रमणाचार की पवित्रता का आधुनिक सन्दर्भ में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसकी जीवन पद्धति प्रतिपादित रीति-रिवाज, स्थितियाँ, मर्यादाएँ, कला, संस्कृति, राजनीति, दार्शनिकता, धार्मिक दृष्टिकोण आदि पर पर्याप्त सामग्री है, जो अन्यत्र कम ही मिलती है। इसमें आचार-विचार आदि के साथ वृत्तिकार ने आन्तरिक विषय को खोलने के लिए ज्ञानवर्धक आदि का संक्षिप्त चिंतन किया है वह उनकी भावना को स्पष्ट कर सकेगा। आचारांग वृत्ति में शीलांक आचार्य ने निक्षेप और नय इन दो दार्शनिक सूत्रों को केन्द्रबिन्दु बनाकर प्रत्येक सूत्र की दार्शनिक समीक्षा ही प्रस्तुत कर दी है। प्रारम्भिक प्रस्तावक में पञ्च विध आचार-विचार के साथ नय प्रमाण और निक्षेप के आधार पर आत्मा का जो विवेचन प्रस्तुत किया है वह दार्शनिक जगत में सभी पक्षों को चिन्तन करने को बाध्य कर देगा। इसकी आत्मवादी, कर्मवादी, क्रियावादी, लोकवादी विचारधारा भारतीय दर्शन के क्षेत्र में नये प्रयोग ही कहे जाएँगे; क्योंकि इससे पूर्व इस तरह की दृष्टि नहीं थी। कारण सिद्ध है कि इससे पूर्व कोई आगम लिखा ही नहीं गया था। आगम की इस प्रथम अङ्ग ग्रन्थ में वृत्तिकार ने जो दृष्टि दी है, वह दर्शन जगत के लिए उपयोगी कही जा सकती है / 256 आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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