________________ (4) अतिथिसंविभाग व्रत सत्कार सेवा श्रावक का स्वाभाविक गुण है। वह सचित्तनिक्षेप, सचित्तपिधान, कालातिक्रम, परव्यपदेश और मात्सर्य-इन अतिचारों से रहित अनुकम्पापूर्वक सुपात्रों को दान देता है। साधु-साध्वियों को दिया गया दान उच्च श्रेणी का होता है। इसलिए श्रावक यथाशक्ति अतिथिसत्कारपूर्वक अपनी भोजन विधि को पूर्ण करता है। श्रावक के व्रतों के आदर्श रूप श्रावक को आचार की पवित्रता की ओर ले जाते हैं। इसलिए श्रावकों के आचार के अनुसार पाक्षिक श्रावक (प्रारम्भिक दशा) नैष्ठिक श्रावक (मध्यदशा) और साधक श्रावक (पूर्णदशा) ये तीन भेद शास्त्रीय दृष्टि से प्रतिपादित किये जाते हैं। व्रती श्रावक के गुण प्रतिमा आदि के आधार पर श्रावक के गुण बढ़ते हैं। इससे श्रावक नियमित, संयत और आत्मा की पवित्रता की ओर अग्रसर होता है। श्रावकों के व्रतों का उल्लेख मात्र ही आचारांग वृत्ति में हुआ है। इसलिए विशेष विवेचन नहीं दिया जा रहा हैं। ___आचारांग वृत्ति के समग्र विषय को सात अध्यायों में विभक्त किया गया है। इसमें बाह्य और आभ्यन्तर दृष्टियों से इस प्रथम अङ्ग आगम की आचार संहिता का गहराई से विश्लेषण किया गया है। आंचारांग के मूल प्रतिपाद्य विषय “आचार" के विविध पहलुओं पर ऊहापोह करने का प्रयास अल्पज्ञ होते हुए भी विषय विवेचन को एक नई दिशा प्रदान कर सका होगा। शोध का यह प्रयास निश्चित ही हमारी संस्कृति एवं सभ्यता के उद्घाटन में नये चिंतन को प्रस्तुत कर सकेगा। आचारांग वृत्ति के प्रतिपाद्य विषय का उपसंहार विषय के निरूपण को प्रस्तुत कर सकेगा। आगम साहित्य के परिचय में आगम स्वरूप, आगम भेद, आगम की प्रमुख वाचनाएँ एवं आगम की भाषा-शैली आदि पर विचार किया गया है। इसमें शीलांक आचार्य द्वारा “आप्त प्रणीत आगम” अर्थात् आगम आप्त प्रणीत है, ऐसा कथन वृत्तिकार के शब्दों पर ही किया गया है। वृत्तिकार की मूल भावना को लेकर आचारांग के स्वरूप आदि पर इसमें विचार किया गया है। आचारांग वृत्ति के द्वितीय अध्याय में आचार-विचार, व्यवहार, विहार, चर्या, शय्या, उपधि; शुद्धा-शुद्धि विवेक, व्रत, तप, नियम, उपधान आदि पर प्रकाश डालते हुए आचारांग वृत्ति के प्रथम श्रुतस्कन्ध और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के विषय को स्पष्ट किया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में निम्न बिन्दुओं पर विचार किया गया है 1. षट्काय जीव का रक्षण एवं पर्यावरण की सुरक्षा। 2. संसारासक्ति का क्या कारण है ? उससे जीव कैसे मुक्त होता है और क्या प्राप्त करता है? 3. समभाव एवं सम्यक्त्व की दिशा प्रदान करने वाला परमार्थ है। आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन 255 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org