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________________ इस तरह साधु और साध्वियों के आहारचर्या के विविध प्रकार के कारणों को आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में विधिवत् विवेचन किया गया है और साधना एवं साधक जिनआज्ञापूर्वक संयम का पालन करते हुए ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शुद्धि को भी देखता है। संयमशील साधक समाधि के समय में भी आहार की एषणा जिन आज्ञापूर्वक ही करता है। इसी से भिक्षुभाव की या ज्ञानादि आचार की समग्रता श्रावक धर्म ___ मूलतः आचारांग श्रमण की आचार पद्धति को ही प्रस्तुत करने वाला है। इसमें गृहस्थ धर्म का उल्लेख नहीं है, परन्तु कई प्रकार के गृहस्थों का उल्लेख है। जैसे-राजा, वैश्य, गण्डक, कोट्ठाग, बोक्कयशाली, गाहापति, गाहापत्नी, परिवार, परिवादि आदि गृहस्थों का उल्लेख इसमें है। गृहस्थ मूलत: पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत का पालन करने वाले होते हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के समस्त विवेचन में गृहस्थ का किसी न किसी रूप में उल्लेख हुआ है। वृत्तिकार ने गृहस्थ को संयत एवं संस्कारयुक्त है बतलाया गया है / 108 प्रथम श्रुतस्कन्ध के द्वितीय लोक विजय अध्ययन में श्रावक शब्द का प्रयोग किया गया है।०९ वृत्तिकार ने गृहस्थ को कुत्सित अर्थात् कुसमय कहा है; क्योंकि ये काम-परिग्रह के द्वारा कुत्सित मार्ग में लगे हुए रहते हैं जिसका लोक काम-परिग्रही होता है, वे गृहस्थ आश्रम एवं गृहस्थ भाव की प्रशंसा करते हैं। वे गृहस्थ आश्रम के समान कोई अन्य दूसरा धर्म नहीं मानते हैं। गृहस्थ आश्रम का पालन योद्धा और नपुंसक भी करते हैं परन्तु जो महामोह से मोहित, इच्छाओं में रत एवं विषय-भोगों में प्रवृत्त होते हैं वे लोक के सार को नहीं जानते हैं। लोक का सार ज्ञान, दर्शन, चरण और तप है। जो इनसे युक्त होता है, वही गृहस्थ आश्रम का आधार है।१० __ गृहस्थजन अपने लिये तथा अपने पुत्र-पुत्री, बहू, कुटुम्बी, जातिजन, धाई, दास-दासी, कर्मकार, कर्मकारी (नौकर-चाकर), मेहमान एवं कुटुम्बियों के लिये प्रातः एवं सायं नाना प्रकार का आरम्भ करते हैं / 11 इसके संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ की क्रियाएँ हिंसाजन्य होती हैं। गृहस्थ नाना प्रकार के परिग्रहों से युक्त होता है। परन्तु वे जीवन को संयत करने के लिए संयम की भावना करते हैं, वे यह भी सोचते हैं कि गंगा के प्रवाह के विरुद्ध तैरना कठिन है, समुद्र को भुजाओं से पार करना दुष्कर है व बालुका के निःस्वाद ग्रासों का गले उतारना मुश्किल है और लोहे के 252 आचाराङ्ग-शीलावृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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