________________ उद्देशक में अष्टमी पर्वादि में आहार ग्रहण विधि, निषेध, भिक्षा योग्य कुल, इन्द्रमह आदि उत्सव में अशनादि तप के माध्यम से आहार एषणा और संखडि-गमन-निषेध है। तृतीय उद्देशक में विविध दोषों का निषेध, शंकाग्रस्त आहार का निषेध, भंडोपकरण सहित गमनागमन और ग्रह पद को निषिद्ध किया गया है। चतुर्थ उद्देशक में गोदोहन वेला में आहार का निषेध और अतिथि प्रवेश पर निषेध का विवेचन है। पञ्चम उद्देशक में गृह में प्रविष्ट होने पर आहार का विधिपूर्वक ग्रहण एवं बन्द दरवाजे में प्रवेश का भी निषेध किया गया है। षष्ठ उद्देशक में रसान्वेषी कृकट आदि को देखकर प्रवेश करने आदि का विवेचन है। सप्तम उद्देशक में षट्काय जीव प्रतिष्ठित आहार ग्रहण निषेध और पानक एषणा का विवेचन भी है। अष्टम उद्देशक में वनस्पति की रक्षा मूल, स्कन्ध, शाखा, पत्र, फल, बीज, पुष्प आदि के रक्षण का संदेश देता है। नवें उद्देशक में आधाकर्मिक आदि ग्रहण का निषेध, प्रत्यानुपूर्वक आहार की याचना. आदि का वर्णन है। दसवें उद्देशक में आहार एषणा में विवेक का प्रतिपादन करता है और एकादश उद्देशक में पिंडैषणा एवं पान-एषणा का विधिवत मालन का भी उपदेश दिया गया है। वृत्तिकार ने गच्छान्तर्गत (स्थविर कल्पी और गच्छविनिर्गत (जिनकल्पी) ये दो साधुओं के आहार सम्बन्धी शुद्ध अवग्रह का कथन किया है। गच्छनिर्गत और गच्छान्तर्गत साधुओं को सम्यक् दृष्टि से देखना चाहिए। वृत्तिकार ने आहार की भूमि, विहार की भूमि एवं स्वाध्याय की भूमि आदि का विवेचन करते हुए आहारचर्या करते समय निम्न कुलों का ध्यान रखना आवश्यक बतलाया है / भोग, राजन्य, क्षत्रिय,इक्ष्वाकु, हरिवंश, वैश्य, दण्डक, कोट्ठाग,बोक्कयशाली आदि का उल्लेख किया है।१०३ आदैशिक मिश्रजात, क्रीतकृत, उद्यतक, आच्छेद्यत और अनिष्ट आहारों का निषेध किया गया है / 104 आहारचर्या कैसे की जावे? आचारांग वृत्तिकार ने इसकी सम्यक् विवेचना की है। उन्होंने प्रतिपादन किया है कि जहाँ क्लीब/नपुंसक या गणिका आदि हों तथा जहाँ पर मैथुन/अब्रह्मपूर्वक विचरण किया जाता हो, वहाँ भोजन न करें और न ही वहाँ से भोजन लेवें। आहार याचना के लिए जाते समय श्रमण को पात्र, वस्त्र, रजोहरण, आहद को साथ में ले जाना चाहिए।१०५ ___ . साधु यथायोग्य नवविध, दसविध, एकादशविध, द्वादशविध उपधिपर्वक विचरण करें संथा गमनागमन करते समय स्वाध्याय-भूमि, विहार-भूमि, विचार-भूमि, विष्ठोत्सर्ग भूमि आदि का विचार करें / 106 आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन 251 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org