________________ वाक् गुप्ति के चार भेद हैं-१. सत्य-वाक् गुप्ति, 2. मृषा-वाक् गुप्ति, 3. सत्य-मृषा वाक् गुप्ति और 4. असत्य-मृषा वाक् गुप्ति। महावीर चर्या के नाम से प्रसिद्ध उपधान सूत्र में वचन गुप्ति का उत्कृष्ट उदाहरण देखा जा सकता है। जिस समय लाड देश की भूमि पर श्रमण महावीर विचरण कर रहे थे, उस समय में भी वे कुछ नहीं बोले। कभी-कभी अचानक आये हुए आगन्तुक द्वारा पूछा गया कि यहाँ अन्दर कौन है ? तब भी वे कुछ नहीं बोले। वचन गुप्ति के विषय में शिवार्य ने कहा है कि जिससे दूसरे प्राणियों को उपद्रव/पीड़ा हो, ऐसा वचन व्यवहार नहीं करना चाहिए। सम्पूर्ण प्रकार के वचनों का त्याग वाक् गुप्ति या वचन गुप्ति है।९९ इसलिए सभी वचन विशेषकारक हैं / 200 काय गुप्ति शारीरिक क्रियाओं का रोकना काय गुप्ति है। साधक का गमनागमन, शयन, आसन, चर्या, विहार आदि काय-गुप्तिपूर्वक ही होता है। आचारांग में छह प्रकार के पटकाय जीव का जो विवेचन है, वह शरीरधारी प्राणियों की रक्षा. को महत्त्व देता है। इसलिए कायिक व्यापार को भी रोकना आवश्यक है। भाषा जात अध्ययन में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और रूप ये भाषा वर्गणा काय योग से होते हैं। इसलिए काय सम्बन्धी क्रियाओं का निग्रह करना काय गुप्ति है। नवें अध्ययन के उपधान श्रुत में काय सम्बन्धी विविध प्रकार के काय के उपसर्गों का विवेचन है। महावीर ने कायिक निग्रह को सदैव बनाए रखा। वे शरीर पर विचरण करने वाले साँप, बिच्छु आदि जीवों से भयभीत नहीं हुए। कायिक पीड़ा दी जाने पर भी विचलित नहीं हुए एवं विविध प्रकार के उपसर्गों के होने पर भी पट्काय जीवों की रक्षा में प्रयत्नशील रहे। अत: यह समिति कायिक क्रियाओं को रोकने वाली क्रिया है। शरीर संयम, मन संयम, आहार संयम, निवासस्थान संयम, इन्द्रिय संयम, निद्रा संयम, क्रिया संयम और उपकरण आदि संयम काय गुप्ति के ही कारण है। अत: समस्त गुप्तियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि समत्व युक्त साधक यतनाशील रहते आहारचर्या आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में आहारचर्या का विस्तार से विवेचन है। इसका पिण्डैषणा अध्ययन सचित एवं अचित आहार ग्रहण विधि एवं निषेध आदि को प्रस्तुत करने वाला है। इसके ग्यारह उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में सचित संसक्त आहारैषणा, सबीज-अन्न-ग्रहण एषणा, अन्यतीर्थिक गृहस्थ सहगमन निषेध, औद्देशिकादि दोष रहित पिण्डैषणा और नित्याग्राहि आदि ग्रहण निषेध। द्वितीय 250 आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org