________________ विवेचन किया है। जहाँ भाषा प्रयोग के सोलह वचनों के विवेक हो स्पष्ट किया है. वहीं यह निर्देश किया है कि साधु-साध्वी (1) सत्या, (2) मृषा, (3) सत्यामृषा और (4) असत्यामृषा का पूर्ण पालन करें। भाषा जगत नामक इस अध्ययन में उक्त चारों के भेद बताये हैं। इसमें सावध और निरवद्य दोनों ही दृष्टियों को अच्छी तरह से समझाया गया है। इसी के अन्त में कहा है कि साधु-साध्वी क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करके विचारपूर्वक निष्ठाभाषी, निशम्यभाषी, अत्वरितभाषी और विवेकभाषी हों।७८ * अतः जिसमें भाषा के प्रयोग का विवेक निश्चित हो, वह ज्ञान से परिपूर्ण प्रत्यन भाषा समिति है।७९ एषणा समिति एषणा का अर्थ खोजना होता है। साधु-साध्वी की निर्लोभ वृत्तिपूर्वक जो वस्त्र आदि का ग्रहण होता है, वह एषणा समिति है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पञ्चम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में वस्त्रएषणा और पात्रैषणा की विशेष रूप से चर्चा की है। शय्या, आसन, उपधान, शास्त्र और उपकरण की एषणा करते हुए उनमें लगने वाले दोषों का परित्याग करता है। - . वृत्तिकार ने एषणा अर्थात् गवेषणा की चर्चा करते हुए लिखा है कि साधक को ग्रहण एषणा और परिभोग एषणा का पूर्ण रूप से ध्यान रखना चाहिए; क्योंकि साधक की क्रियायें संयम के रक्षण के लिए होती हैं। -- संयमशील साधु एवं साध्वी निम्न प्रकार के वस्त्रों की एषणा करते समय निर्लोभभाव से बहुमूल्य बहु आरम्भ से निष्पन्न वस्त्र आदि का प्रयोग न करें। वृत्तिकार ने इसकी विस्तार से चर्चा की है। 1 (1) आजिग्क (2) श्लक्ष्ण (3) श्लक्ष्ण कल्याण (4) आजक (5) कायक (6) क्षौमिक दुकूल (7) वल्कल वस्त्र (8) अंशक (9) चीनांशुक (10) देशराग (11) अमिल (12) गर्जल (13) स्फटिक युक्त एषणीय वस्त्र आदि में दोष लगने की संभावना रहती है। इसलिए साधु चार प्रकार की एषणीय प्रतिमाओं, 82 (उद्देष्टा, प्रेक्षिता) परिभुक्तपूर्वा और उज्झित धार्मिक को प्रतिज्ञा जिन आज्ञानुवर्ति रहते हुए उनकी एषणा करें। 3. एषणा समिति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से चार प्रकार की है। इसमें प्रवृत्त साधक 96 प्रकार के दोषों से रहित वस्त्र, पात्र, आहार, वसति आदि की गवेषणा करता है। अतः जिस वस्त्र, आसन आदि के ग्रहण में सम्यक् अन्वेषण की प्रवृत्ति होती है वही एषणा समिति है। आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन 247 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org