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________________ ईर्या इसके तृतीय अध्ययन का नाम ईर्या समिति है इसमें भिक्ष-भिक्षणी के वर्षावास. विहार, संयम मार्ग आदि का विवेचन किया गया है। ईर्या का नाम गति है अर्थात् गमनागमन के कारण नाना प्रकार के जीवों का घात हो जाना स्वभाविक है इसलिए उन जीवों के विराधना के भाव को ध्यान में रखकर साधक ईर्या समिति का पालन करता है। उसमें वह चार प्रकार का प्रयत्न करते हैं 1. जीव-जन्तुओं को देखकर चलना द्रव्य यतना है। 2. युगमात्र भूमि को देखकर चलना क्षेत्र यतना है। 3. अमूल काल में चलना काल यतना है और 4. संयम और साधना के भाव से उपयोगपूर्वक चलना भाव यतना है।७२ अतः जिस समिति में गमनागमन के समय में यतनापूर्वक या समभावपूर्वक गमन करना ईर्या समिति की प्रमुख विशेषता है। वृत्तिकार ने कहा है कि ईर्या समिति से युक्त साधक मार्ग में चलते हुए सभी प्रकार के असार का परित्याग कर दें।७३ साधु समाचारी का यही मूल उद्देश्य है इसमें संयत भाव की विशेषता है। भाषा समिति संयमी साधु एवं साध्वी विचारपूर्वक भाषा समिति से युक्त संयत वचनों का प्रयोग करते हैं। इसलिए वे निश्चित भाषी, निष्ठा भाषी होते हैं। समिति में स्व और पर को मोक्ष की ओर ले जाने वाले हितकारक वचन, निरर्थक वचन से रहित स्पष्ट शब्दों का प्रयोग किया जाता है। साधु एवं साध्वी वचन के आचारों को सुनकर छल, कपट रहित वाणी का प्रयोग करते हैं। साधु एवं साध्वी के लिए छह प्रकार के सावध भाषा के प्रयोग का निषेध किया गया है। (1) क्रोध का अभाव, (2) अभिमान का अभाव, (3) छल-कपट का अभाव, (4) लोभ का अभाव, (5) कठोरता का अभाव और (6) सर्वकाल सम्बन्धी दोषों का अभाव / 74 ___ सोलह प्रकार के वचनों का आचारांग में कथानक किया गया है-(१) एकवचन, (2) द्विवचन, (3) बहुवचन, (4) स्त्रीलिंग कथन, (5) पुल्लिंग कथन, (6) नपुंसकलिंग कथन, (7) अध्यात्म कथन, (8) उपनीत (प्रशंसात्मक) कथन, (9) अपनीत (निन्दात्मक) कथन, (10) उपनीताउपनीत (प्रशंसापूर्वक निन्दा वचन) कथन, (11) अपनीतोपनीत (निन्दापूर्वक प्रशंसा) कथन, (12) अतीत वचन, (13) वर्तमान वचन, (14) अनागत (भविष्यत् वचन), (15) प्रत्यक्ष वचन और (16) परोक्ष वचन / 75 वृत्तिकार ने भाषा समिति से युक्त साधु-साध्वी के लिए समतापूर्वक संयत वचनों का प्रयोग बतलाया है।६ भाषा जगत नामक आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक में भाषा समिति की विशेषताओं का विस्तार से 246 आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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