________________ ब्रह्मचर्य शारीरिक और मानसिक शक्ति को सुदृढ़ बनाता है। आसक्ति अरति, रति, असंयत की भावना को समाप्त कर वीर्य की रक्षा करता है। यह आत्मा का परम साधन है। सभी तपों में ब्रह्मचर्य को उत्तम तप भी कहा है।५६ ___ब्रह्मचर्य के चार अर्थ हैं-(१) ब्रह्म में विचरण करना, (2) मैथुन विरमण/इन्द्रिय संयम (3) गुरुकुल वास और (4) सदाचार।५७ आचारांग वृत्तिकार ने ब्रह्मचर्य को चारित्र का एक मुख्य अङ्ग माना है।५८ - ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है। यह इन्द्रिय और नोइन्द्रिय विजय रूप है। यम और नियम इसके प्रधान गुण हैं। ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करने से मुनष्य का अन्त:करण बाह्य और आभ्यन्तर दोनों दृष्टियों से गम्भीर बनता है। ब्रह्मचर्य देह और मन का दमन करता है / 'वृत्तिकार ने कर्मोपचय और तपश्चरण का साधन भी माना है।५९ द्वितीय श्रुतस्कन्ध में साधु एवं साध्वियों की. संयम साधना का विस्तार से विवेचन करने के उपरान्त चतुर्थ महाव्रत (मेहुण विरमण) के औचित्य के साथ उनकी भावनाओं का विवेचन भी किया है। समस्त प्रकार के मैथुन विषय का सेवन महाव्रती के लिए उचित नहीं है। इसलिये वह देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी और तिर्यंच योनी सम्बन्धी मैथुन का न स्वयं सेवन करता है, न दूसरों से कराने की भावना करता है और करते हुए का न अनुमोदन करता है।६० मेहुण-विरमण की पाँच भावनाएँ आचारांग में प्रतिपादित की गई हैं(१) स्त्रीकामजनक कथा विवर्जन, (2) स्त्रियों की मनोरम और मनोहर काम-राग की दृष्टि से रहित होना, (3) काम-क्रीड़ा से रहित होना, (4) अतिमात्रा में आहार पानी का सेवन नहीं करना चाहिए, (5) शय्या, आसन आदि का सेवन नहीं करना चाहिए।६१ समवायांग, आवश्यक चूर्णि, तत्त्वार्थ सूत्र, सर्वोर्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में इसी विस्तार से चर्चा की गई है। ब्रह्मचर्य की विशिष्ट भावनाओं के पालन से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। परिग्रह विरमण “परिगृहात् रति परिग्रहो।”६२ वृत्तिकार ने इस व्युत्पत्ति के आधार पर यह कथन किया है कि जो ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है। धर्म उपकरण के अतिरिक्त उपकरणों को संगृहीत करना परिग्रह है। यदि संयम के उपकरणों में भी मूर्छा भाव है तो वह भी परिग्रह है / 63 “तत्त्वार्थसूत्र में भी मूर्छा परिग्रह"६४ कहा है। लोक विजय अध्ययन के पाँचवें उद्देशक में साधक के लिए विविध प्रकार के दोषों का निषेध किया गया है। साधक उद्गम दोष, उत्पादन दोष, एषणा दोष और मंडल दोष से रहित होता है / यह कालज्ञ, वल्लज्ञ, मात्रज्ञ, क्षेत्रज्ञ, क्षणज्ञ, 244 आचाराङ्ग-शीलावृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org