________________ करता है, आत्मनिंदा करता है, गुरु की साक्षी से उसकी गर्दा करता है और अपनी आत्मा से अदत्तादान का व्युत्सर्ग करता है।५१ आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के तृतीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में आदान शब्द का प्रयोग किया है। इस आदान शब्द को वृत्तिकार ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है-आत्म प्रदेशों के साथ आठ प्रकार के कर्म जिन कारणों से आदान/ग्रहण किये जाते हैं, चिपकाये जाते हैं, वे पाँच आस्रव, अठारह पाप स्थान, और कषाय रूप हैं, इसलिए इनका परित्याग करना चाहिए।५२ चोरी को आस्रव द्वार के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। अदत्तादान विरमण महाव्रत की पाँच भावनाएँ निम्न प्रकार दी गई हैं१. यथायोग्य विचारपूर्वक अवग्रह की याचना करें। 2. अवग्रह, अनुज्ञा, ग्रहणशील बनें। 3. अवग्रह की क्षेत्र काल सम्बन्धी जो भी मर्यादा ग्रहण की हो उसका उल्लघंन न करें। 4. गुरुजनों की अनुज्ञा ग्रहण करके आहार-पानी आदि का उपभोग करें। 5. साधर्मियों से भी विचारपूर्वक अवग्रह याचना करें।५३ अदत्तादान विरमण महाव्रत से छहः काय के जीवों का रक्षण होता है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में श्रमण चर्या के विवेचन में आहार ग्रहण आदि के समय को खात, भित्ति, सन्धि, उदक, भवन आदि का विचार करके ग्रहपति से आहार का ग्रहण वर्जित बतलाया है। अदत्त अर्थात् चोरी से सभी तरह का घात होता है। इसलिए उन क्रियाओं से विमुक्त होकर ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना श्रमण का परम कर्तव्य माना गया है। मैथुन विरमण आचारांग सूत्र के सम्यक्त्व अध्ययन में निर्मल दृष्टि से सच्ची श्रद्धा और यथार्थ लक्ष्य का बोध कराया गया है। इसी में तत्त्वज्ञ व्यक्ति के लिए तप के महत्त्व का बोध भी कराया गया है। वीर साधक आत्मस्वरूप में प्रसन्नता धारण कर संयम में तल्लीनता रखता है। पाँच समिति से युक्त होकर सदा प्रयत्नपूर्वक क्रिया करता है। ज्ञानादि से युक्त ब्रह्म की उपासना भी करता है। ब्रह्म उपासना एवं ब्रह्मचर्य में तल्लीनता वीरों का मार्ग कहा जाता है। वीर पुरुष ब्रह्मचर्य में रहकर शरीर को वश करता है/दमन करता है।५ .. ब्रह्मचर्य का अर्थ आत्म-साक्षात्कार और परमात्मा-दर्शन है। ब्रह्म शब्द ईश्वर और आत्मा का नाम है। “ब्रह्मणि चर्यते अनेन इति ब्रह्मयर्चम्” अर्थात् इस व्युत्पत्ति के अनुसार ब्रह्म में लीन होना ब्रह्मचर्य है। आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन 243 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org