________________ 1. प्राणि मात्र के प्रति हितकर संयम 2. गुरु साक्षी से ग्रहित पवित्र संकल्प और 3. सिद्धान्त प्रतिपादक आगम सत्य को बहुमूल्य मानकर श्रमण प्रतिज्ञापूर्वक प्रवृत्तियों को सामने रखकर चलता है। वह आसेवना परिज्ञा आदि की प्रवृत्ति, में स्थित, गुरु साक्षी से ग्रहित प्रतिज्ञा का निर्वाहक भी बनता है। आगम सिद्धान्त का पालन करता है तथा नाना प्रकार के विकल्पों से रहित वीतराग मार्ग का अनुसरण करता है। . आचारांग सूत्र के नवें अध्ययन में महावीर की चर्या इस बात को प्रमाणित * करती है कि ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप में लीन श्रमण मौनपूर्वक विचरण करते हैं। महावीर एकान्त में वास करते हैं। उस समय में लोगों के द्वारा पूछे जाने पर भी मौन अर्थात् नहीं बोलने को ही विशेष महत्त्व देते हैं। वृत्तिकार ने अबहुवाचि या अबहुभाषी के रूप में इस बात का संकेत किया है और इसे ही उत्तम मानकर सत्य के महत्त्व को स्पष्ट किया है। इसमें यह भी कथन किया गया है कि साधक श्रमण की अपेक्षा गृहस्थ कुछ न कुछ अवश्य बोलेगा। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन में श्रमण-श्रमणियों के भाषा व्यवहार पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। सावध भाषा को अनुचित कहा है। इसी प्रसंग में संयत के सोलह वचनों का कथन किया है।६ शीलंक आचार्य ने नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, और रूप-इन छ: निक्षेपों की दृष्टि से भाषा की वास्तविकता पर प्रकाश डाला है और यह कथन किया गया है कि श्रमण, सत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्या मृषा का व्यवहार न करें। उक्त चारों भेदों के अन्य भेद भी आचारांग में दिये गये हैं सत्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ वृत्तिकार ने इस प्रकार दी हैं-४६ 1. हास्य का परित्याग, 2. अनुरूप चिंतन पूर्वक भाषण, 3. क्रोध का परित्याग, 4. लोभ का परित्याग और 5. भय का परित्याग / समवायांग, आवश्यक सूत्र आदि ग्रन्थों में भी यही भावनाएँ दी गई हैं। अदत्तादान विरमण महाव्रत अचौर्य महाव्रत के रूप में प्रसिद्ध अदत्तादान का विवेचन द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन में विशेष रूप से किया गया है। गाँव, नगर, अख्य, थोड़ा, बहुत, सूक्ष्म, स्थूल, सचेतन, अचेतन आदि पदार्थ स्वामी के नहीं दिये जाने पर न तो स्वयं ग्रहण करना, न स्वयं दूसरे के द्वारा ग्रहण करवाना और न ही ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करना। अर्थात् अदत्तादान ग्रहण करने वाला श्रमण तीन कारणों से, तीन योगों से यावत् जीवन प्रतिज्ञापूर्वक विचरण करता है। यदि किसी तरह पूर्व कृत अदत्तादान में पाप की प्रवृत्ति होती है तो वह पाप की निवृत्ति के लिए प्रतिक्रमण 242 आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org