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________________ के जीवों की तुलना मानवीय मूल्यों से की गई। यही विवेच्य जीवन का सर्वोत्तम एवं उत्कृष्ट विवेचन है। मुक्ति और मुक्ति के उपाय, मुक्तिपथगामी की क्रियाएँ आदि इसकी धरोहर हैं। आचारांग वृत्ति का मूल्य मानवीय दृष्टि से इस पर विचार करते हैं तो यह निश्चित ही कहा जा सकता है कि आचारांग व उसका विवरण सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय के लिए है। इसके विवरण में सिद्धान्त की गम्भीरता, ज्ञान की गहराई, आचार की सुरभि और दर्शन की महनीयता देखने को मिलती है। शीलांकाचार्य ने अपनी सूझबूझं के आधार पर विषय का जितना खुलासा किया, वह अतिमहत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें परिभाषा,शब्द-विश्लेषण, शब्दव्युत्पत्ति, भेददृष्टि, नय और निक्षेप की शैली आदि संभी कुछ है। . . "ॐ नमः सर्वज्ञाय" इस मंगल अभिव्यक्ति के साथ शीलांकाचार्य ने उपजातिछन्द में अनादिनिधन अनुपम नाना प्रकार के भंगों से सिद्ध के सिद्धान्तों तथा मल को नष्ट करने वाले तीर्थप्रवर्तक के नए समूह का स्मरण किया है। इसमें जगत के हित के लिए वीर प्रभु ने आचारशास्त्र जिस रूप में सुनिश्चित कियां, उसको उसी रूप में विवरण सहित विवेचन करने की भावना व्यक्त की गई है। आचारशास्त्रं सुविनिश्चितं यथा, जगाद वीरो जगते हिताय य: । तथैव किंचिद्गदत: स एव मे, पुनातु धीमान् विनयार्पितागिरः । इसकी वृत्ति के पूर्व में निवेदन शुभबोध की कामना की गई है, तदनन्तर राग-द्वेष से रहित, दोषों के आत्यंतिकरहित अर्हत् का स्मरण किया गया है। अर्हत् आप्त हैं और आप्त के वचन अनुयोग हैं, वह अनुयोग चार प्रकार का है (१) धर्मकथानुयोग-उत्तराध्ययन आदि, (२) गणितानुयोग-सूर्यप्रज्ञप्त्यादिक, (३) चरणकरणानुयोग-कर्म और चारित्र ग्रंथ, (४) द्रव्यानुयोग-पूर्व ग्रंथ । सम्यक्त्व से युक्त ग्रंथ । इन अनुयोगों की प्ररूपणा गणधरों के द्वारा की गई। इसकी निर्विघ्न समाप्ति के लिए मंगल स्वरूप भगवत् वचन का अनुवाद या गुणानुवाद श्रुत में है। किसी भी कार्य या श्रुतज्ञान की विशेषता व्यक्त करने में बहुत से विघ्न होते हैं। अकल्याण के कारण भी उपस्थित होते हैं, इसलिए मंगलरूप वचन की प्रतिज्ञा की गई और कहा गया, सभी श्रुतशास्त्र मंगलरूप हैं। ज्ञानरूप होने के कारण से ज्ञान का कर्म निर्जरा में कारण होता है, इसलिए इसकी व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की गई है “मां गालयत्यपनयति भवादिति मंगलं, माभूद् गलो विघ्नो गालो वा नाश: शास्त्रस्येति मंगलमित्यादि (२४) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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