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अन्य आगम टीकाकार
यह निश्चित ही कहा जा सकता है कि जैनाचार्य संस्कृत एवं प्राकृत दोनों ही भाषाओं के ज्ञाता थे, उनका जितना सिद्धान्त में ज्ञान था, उतना ही दर्शन, ज्योतिष, कर्म सम्बन्धी गणित, लोकविवेचन आदि में भी था, इसलिए जैनाचार्यों की परम्परा छठी शताब्दी से लेकर अब भी आगमों पर बृहद्विवेचन प्रस्तुत करती रही हैं । उनमें तिलकसूरि, क्षेमकीर्ति, भुवनसूरि, गुणरत्न, विजयविमल, हीरविजयसूरि, शांतिचंद्रगणि, हर्षकुल, लक्ष्मीकल्लोलगणि, दानशेखर, विनयहंस, जिनभद्र, नमिसाधु, ज्ञानसागर, माणिक्यशेखर, शुभवर्धनगणि, धीरसुंदर, श्रीचंद्रसूरि, कुलप्रभ, राजवल्लभ, हितरुचि, अजितदेवसूरि, पार्श्वचंद्र, साधुरंग उपाध्याय, नगर्षिगणि, सुमतिकल्लोल, हर्षनन्दन, मेघराजवाचक, भावसागर, पद्मसुंदरगणि, कस्तूरचंद, हर्षवल्लभ उपाध्याय, विवेकहंस, ज्ञानविमलसूरि, अजितदेवसूरि, राजचंद्र, रत्नप्रभसूरि, समरचंदसूरि, पद्मसागर, जीवविजय, पुण्यसागर, विनयराजगणि, विनयक्षेम, हेमचंद्र, सौभाग्यसागर, कीर्तिवल्लभ, गुणशेखर, लक्ष्मीवल्लभ, भावविजय, धर्ममन्दिर उपाध्याय, उदयसागर, मुनिचंद्रसूरि, ज्ञानशीलगणि, अजितचंद्र, राजशील, उदय-विजय, समयसुंदर, शांतिदेव सूरि आदि प्रमुख टीकाकार हैं। आधुनिक युग में भी मुनि जिनविजय, मुनि पुण्यविजय, जिन मणिसागर सूरि, आ. घासीलाल, मुनि कल्याणविजय, जवाहराचार्य, आचार्य तुलसी, कवि अमरचंद्र, पं. मुनिश्री फूलचंद, हस्तीमल, आत्माराम जी, अमोलकऋषि, मालवकेसरी, सोभाग मुनि, मुनि कन्हैयालाल, विजयमुनि, मुनि नथमल, आचार्य देवेन्द्र मुनि, म. विनयसागर, मुनि चंद्रप्रभ सागर, मुनि ललितप्रभ सागर आदि के आगमों पर व्याख्यान एवं विवरण आगम की महती प्रभावना बढ़ा रहे हैं ।
आचारांगवृत्ति और उसका विषय विवरण
जैन आगमों में आचारांग सूत्र को विशेष महत्व दिया जाता है । इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं - प्रथम श्रुतस्कन्ध नौ अध्ययनों से युक्त है व द्वितीय श्रुतंस्कन्ध पाँच चूलिकाओं के रूप में प्रसिद्ध है । इसी आचारांग के अलग-अलग अध्ययन एवं उद्देशक हैं । प्रथम अध्ययन में सात उद्देशक, द्वितीय में छः, तृतीय में चार उद्देशक, चतुर्थ में चार, छठे में पाँच उद्देशक, सातवें में सात, आठवें में आठ, नवें में नौ, दसवें में ग्यारह उद्देशक, ग्यारहवें में तीन, बारहवें में तीन, तेरहवें में दो, चौदहवें में दो, पंद्रहवें में दो, सोलहवें में दो और सत्रहवें से पच्चीस तक में कोई उद्देशक नहीं है अर्थात् अध्ययनों में उद्देशक विभाग है, वह पच्चासी है। प्रथम श्रुतस्कन्ध की प्रामाणिकता १८००० पद प्रमाण है । इसी श्रुतस्कन्ध का महत्वपूर्ण स्थान है । इसकी रचनाशैली गद्य व पद्य दोनों ही से परिपूर्ण है। सूत्र और सूत्र की शैली में यति, लय और छंदोमयी दृष्टि है। आचारांग के विवेच्य में प्राणीजगत के सम्पूर्ण जीवन को स्थान दिया गया है। इसके प्रारम्भिक चरण में आत्मदृष्टि से विचार करके छः काय
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