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________________ उनके उपदेशों पर चलता है। श्रमण पाप के अनुष्ठान से रहित ज्ञान, दर्शन और चारित्र का आचरण करता है। वह पापों से अनुपरत समताधर्म का पालन करता है। इसलिए कहा जाता है कि “समिया परियाए वियाहिए'९" अर्थात् समता का उत्तर चारित्र की प्रतीति कराता है “विप्पमुक्कस नत्थि मग्गे विरयस्स। चारित्र सम्पन्न मुनि शरीर आदि क्रियाओं से निरासस्त और विभक्त होता है। उस त्यागी विरक्त साधक के लिए संसार में परिभ्रमण नहीं करना पड़ता है। ___ शस्त्र परिज्ञा के अतिरिक्त अन्य सभी अध्ययनों में श्रमण के समभाव को दर्शाया गया है। उपधानश्रुत से प्रसिद्ध अध्ययन श्रमण के तपाचरण, ज्ञान, ध्यान, विहार एवं संयम की वलिष्उता पर प्रकाश डालता है। महावीर की तपश्चर्या के नाम से यह श्रुत अध्ययन श्रमणे साधना की विशेषताओं का उल्लेख करता है। ___ इसका द्वितीय श्रुतस्कन्ध अहिंसा समता, आचार-विचार, चर्या, तपाचरण, कषाय विजय, अनासिक्त, आहारशुद्धि, स्थान, गति, भाषा, विवेक एवं निवास स्थानों एवं भावनाओं का बोध कराने वाला है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध आचार चूला के नाम से प्रसिद्ध है। शीलंक आचार्य ने इस श्रुतस्कन्ध को नौ ब्रह्मचर्य अध्ययन के नाम से प्रतिपादन किया है। निक्षेप और नय पद्धति पर आधारित इसका सम्पूर्ण विवेचन भिक्षु और भिक्षुणी की समस्त क्रियाओं पर आधारित है। श्रमण, माहन, अतिथि, कृपण और वणीपक-इन पाँच श्रमणों का व्युत्पतिपूर्वक विवेचन प्रस्तुत किया है। महान का अर्थ ब्राह्मण, अतिथि का अर्थ का भोजन काल में उपस्थित अभ्यागत कृपण का अर्थ दरिद्र और वणीपक का अर्थ बंदीजन आदि लिया है।३२ श्रमण के पाँच अन्य भेद इस प्रकार भी किये गये हैं--(१) निम्रन्थ, (2) शाक्य, (3) तापस, (4) मौरिक और (5) आजीवक / 3 जैन श्रमण पाँच आचारों से युक्त होता है, वह तीन गुप्ति, पाँच समिति, पञ्च महाव्रत, छः आवश्यक आदि गुणों से युक्त संयमपूर्वक विचरण करता है। वह राग-द्वेष से रहित, ज्ञान, दर्शन व चारित्र में लीन रहती है। श्रमण के मूल गुण श्रमणों के आचार-विचार का विवेचन समस्त आगम ग्रन्थों में किया गया है। उनमें श्रमणों की भूमिका, श्रमणों की साधना, श्रमणों के गुण आदि का पर्याप्त रूप में विवेचन किया गया है। श्रमणों के गुणों में सत्ताईस मूल गुणों को विशेष महत्त्व दिया जाता है। पाँच महाव्रत, छह आवश्यक, पञ्च समिति, पञ्च इन्द्रिय निरोध, अचेलकत्व, अस्नान, अदन्तधावन, भूमिशयन, रात्रिभोजन परित्याग और आहारचर्या / श्रमणों के मूल गुण दर्शन शुद्धि को करने वाले होते हैं 240 आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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