________________ आभ्यन्तर तप (1) प्रायश्चित्त, (2) विनय (3) वैयावृत्य (4) स्वाध्याय (5) ध्यान और (6) उत्सर्ग।२९ बाह्य-तप शरीर के प्रति ममत्व को घटाने वाला होता है और आभ्यन्तर तप मन का नियमन करने वाला होता है / 23 वीर्याचार__जो अनिगूहित बल और वीर्य का पराक्रम होता है, वह वीर्याचार है।२४ साधक ज्ञान साधना, संयम साधना, तप साधना, भक्ति, श्रद्धा आदि के लिए आत्मशक्ति का उपयोग करता है। वीर्याचार में ज्ञान और आचार का समन्वय होता है इसलिए साधक अपनी साधना के लिए आत्मशक्ति की ओर अग्रसर होता है। वे परिषहों को सहन करते हैं। (1) एकान्त भावना, (2) उपयोगमय जीवन, (3) वैराग्य भावना और (4) अचेलकता-इन चार रचनात्मक उपायों पर प्रवृत्त साधक वीर्याचार को बलिष्ट करता है / 25 जैन आचार की उदात्त भावना है। आचारांग सूत्र पूर्णत: चारित्र की पाँचों ही विशेषताओं को प्रस्तुत करता है। वृत्तिकार ने वृत्ति के माध्यम से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का रहस्य उद्घाटित किया है। श्रमणों की आचार संहिता आगम साहित्य में श्रमणों के सम्पूर्ण जीवन पर प्रकाश डाला गया है। श्रमण क्या है? श्रमण के जीवन का उद्देश्य क्या है? चर्या, आचार-विचार एवं उनके आध्यात्मिक विकास चरण क्या हैं? इन सभी प्रश्नों का समाधान बाह्य और आभ्यन्तर दृष्टियों से आचारांग में किया गया है। आचारांग वृत्तिकार ने समस्त आचार संहिता को सामने रख कर उनके विचारों के अनुकूल वीतराग वाणी पर आधारित विवेचन सर्वत्र किया है। इसके प्रारम्भिक शस्त्र परिज्ञा अध्ययन में वृत्तिकार ने समस्त प्राणियों के जीवन रक्षण करने का उपाय दिया है। उसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर ज्ञान और चारित्र के मार्ग पर चलने वाले साधकों की भूमिका को भी प्रस्तुत किया है। अगणार ज्ञान विषय को जानता है और अज्ञात विषय का. परित्याग करता है। वह चरण अर्थात् चारित्र में प्रवृत्त मूल और उत्तर गुणों से सम्यक् यत्न करता हुआ संयत, वीर एवं मेधावी बना रहता ___. “श्राम्यतीति श्रमणो–यतिः” जो श्रम करता है या यत्न करता है, वह श्रमण है। अर्थात् 'श्रमण' मोक्ष के लिए प्रयत्न करता है, पापों से उपरत, राग-द्वेष से विरत, गुरु के सान्निध्य में तत्पर, वीतराग मार्ग की सेवा करता है। जीवनपर्यन्त आचाराङ्ग-शीलावृत्ति : एक अध्ययन 239 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org