________________ आचार का नाम चरण भी है। चरण की उपेक्षा से अनुयोग दृष्टि को भी प्रस्तुत किया गया है। इस दृष्टि से यह कथन किया गया है कि द्रव्य से दर्शन की शुद्धि होती है और दर्शन शुद्धि का नाम चरण है। चरण/चारित्र/आचार अपने आप में विशिष्ट धर्म को प्रतिपादित करते हैं। वृत्तिकार ने इसकी इस प्रकार से व्युत्पत्ति की है “आचर्यते आसेव्यत इत्याचारः। जिसका आचरण किया जाता है या जीवनपर्यन्त सेवन किया जाता है वह आचार है। आचार की निक्षेप एवं नय दृष्टि से सर्वत्र विवेचना की गई है। आचार का यथार्थ नाम भवगत् किया है। अर्थ, धर्म, प्रत्यन, गुण और पात्र की अपेक्षा से आचार का निश्चयात्मक अर्थ भी प्रतिपादित किया जाता है। आचार के भेद _ निक्षेप की दृष्टि से चरण के चार भेद हैं-(क) नाम चरण, (ख) स्थापना चरण, (ग) द्रव्य चरण और (घ) भाव चरण। दिशा आदि की अपेक्षा से आचार के छः और सात भेद किये गये हैं। इसी प्रसंग में द्रव्याचार और भावाचार के विविध भावों के भेदों का उल्लेख किया है। भावाचार के मूल दो भेद हैं-(१) लौकिक और (2) लोकोत्तर। उनमें लोकोत्तर के पाँच भेद गिनाये हैं जो सभी आगम एवं सिद्धान्त ग्रन्थों में मिलते हैं-(१) ज्ञानाचार, (2) दर्शनाचार, (3) चारित्राचार, (4) तपाचार और (5) वीर्याचार। इनका सम्यक्त्व की दृष्टि से प्रतिपादित किया गया है। नाम, स्थापना, द्रव्य, सम्यक्त्व और भाव सम्यक्त्व। भाव सम्यक्त्व तीन प्रकार से कहा गया है-(१) दर्शन, (2) ज्ञान और (3) चारित्र।। शीलांक आचार्य ने आचारांग वृत्ति के प्रारम्भ में आचारानुयोग प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा की है। आचारानुयोग अर्थ और कथन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि अर्थ रूप में आचारानुयोग का विवेचन भगवन् द्वारा प्रतिपादित है। सूत्र का बाद में गणधरों के द्वारा योग/संकलित किया गया। इसलिए अनुयोग की दृष्टि से भी आचार/चारित्र/चरण का महत्त्व है। ज्ञानाचार वृत्तिकार ने नय के माध्यम से ज्ञान की प्रधानता का प्रतिपादन किया है इसी सन्दर्भ में यह कथन किया है कि हित और अहित की प्राप्ति के परिहार का कारण ज्ञान है। ज्ञान से ही चारित्र उत्पन्न होता है। यही साधन मोक्ष का कारण है। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान-ये पाँच भेद मूल रूप से ज्ञान के किये जाते हैं। आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन ર૩૭ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org