________________ वृत्तिकार की आचार सम्बन्धी विवेचना प्राणीमात्र के जीवन को संरक्षण देने में आचारांग आदि सूत्रों को महत्त्वपूर्ण माना गया है; क्योंकि इनमें विश्वबन्धुत्व की भावना का समावेश है। समस्त जीवों का उपकार इसकी अन्तर अनुभूति है। इसकी आचार-धरा पर अवगाहन करके लोग अनन्त सुख का अनुभव करते हैं। आचारांग की दिव्य देशना संसार की समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है। भगवान की दिव्य देशना को द्वादशांगी के रूप में गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध किया गया है। इस द्वादशांगी वाणी में आचारांग सूत्र को सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। वृत्तिकार ने आचार के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा है-- “सव्वेसिं आयारो तित्थस्स पवत्तणे पढमयाए / सेसाई अङ्गाई एक्कारस आणुपुव्वीए / ' अर्थात् सभी तीर्थंकरों के तीर्थ प्रवर्तन के प्रारम्भ में आचार का ही निरूपण किया गया। इसके पश्चात् क्रमशः शेष ग्यारह अङ्गों का प्रतिपादन किया गया। अर्थ रूप में तीर्थंकर वचन प्रतिपादित किये गये। उन्हें गणधरों ने सूत्रबद्ध किया। वृत्तिकार शीलांक आचार्य ने आचार को परम एवं चरम कल्याणकारक मानते हुए कहा है कि “अङ्गों का सार आचार है” आचार का सार उसकी प्ररूपणा है। प्ररूपणा का सार चरण/चारित्र है और चारित्र का सार निर्वाण है। अतः यह स्पष्ट है कि आचार हमारे जीवन का आदर्श है, जो श्रेष्ठतम सुख का कारण है। आचार्य ने आचार-विचार की पृष्ठभूमि पर विचरण करते हुए यह भी कथन किया है कि जो आचार का जानने वाला होता है वह श्रमण धर्म का ज्ञाता होता है। श्रमण धर्म का आधार आचार है। श्रमण आचार गुण के समूह माने जाते हैं। श्रमणों के द्वारा आचार का आचरण किया जाता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि आचार श्रमण धर्म का सार है। वृत्तिकार ने आचार के कई नामों का उल्लेख किया है। जैसे- आयार, आचाल, आगाल, आगर, असासा, आयस्सि, आइण्णा, अजाई और आमोक्ख। 236 आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org