________________ प्रत्येक प्राणी ने अनेक बार उच्च गोत्र और नीच गोत्र में जन्म ग्रहण किया है। अतः उन पर कैसा अहंकार करे? और किस रूप में विषाद करे? क्योंकि अपने ही किये हुए प्रमाद के कारण से अन्धा, बहरा, गूंगा, लँगड़ा, काना, बोना, कुबड़ा, काला, चितकबरा आदि होता है और अनेक योनियों में जन्म लेते हैं। इन सभी की वृत्तिकार ने जो प्रश्नोत्तरी प्रस्तुत की है, वह पूर्णतः निक्षेप पद्धति पर आधारित है। इसमें उन्होंने प्राकृत और संस्कृत के समन्वय के रूप को आधार बनाया है / 16 निक्षेप पद्धति वृत्तिकार ने सर्वत्र निक्षेप पद्धति को ही अपनाया है। व्याख्या के लिए जिसे उचित कहा जा सकता है, क्योंकि वृत्तिकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की प्रधानता को लेकर विवेचन प्रस्तुत करता है। उसके इस विवेचन. में वस्तु तत्त्व के सभी अभिप्रायों को व्यक्त किया गया है। 1. जीव स्वत: नहीं है, काल से, 2. जीव परत: नहीं है, काल से। इसी तरह के विवेचन को वृत्तिकार ने सर्वत्र प्रस्तुत किया है। सूत्रकार के सूत्र के “अहं आसी” पर निम्न पद्धति वृत्तिकार ने दी है। 1. जीव स्वतः नित्य है, काल से, 2. जीव स्वतः अनित्य है, काल से, 3. जीव परतः नित्य है, काल से। 4. जीव परतः अनित्य है, काल से।७ “से आयावादी लोयावादी कम्भावादी किरियावादी"९८ / / - इस सूत्र पर वृत्तिकार ने जो विवेचन प्रस्तुत किया है, वह निक्षेप पद्धति पर ही आधारित है। इसके पूर्व के विवेचन में भी वृत्तिकार ने क्रियावादी, अक्रियावादी, ज्ञानवादी, विनयवादी, आत्मवादी और लोकवादी इत्यादि दार्शनिकों के दार्शनिक मत का विवेचन इसी पद्धति पर आधारित है। नय पद्धति निक्षेप पद्धति की तरह वृत्तिकार ने अपने विवेचन को नय पद्धति पर भी प्रस्तुत किया है। उसमें भी द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय की प्रमुखता है। इसके अतिरिक्त नय की भंग परम्परा को सर्वत्र देखा जा सकता है। जैसे १.पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती / 2. पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती / 3. नो पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती। 4. नो पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती / 19 व्युत्पत्तिमूलक शैली __ वृत्तिकार की यह प्रमुख शैली है / उन्होंने सर्वत्र शब्द के विश्लेषण को प्रस्तुत करने के लिए शब्द के अर्थ के साथ इस शैली को अपनाया है, जैसे दिशतिति दिक् अति सृजति व्यपदिशिति द्रव्यं द्रव्यं भागंवेति भावः।२० 212 आचाराङ्ग-शीलावृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org