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१. शरीर - बल- शरीर की शक्ति को बढ़ाने के लिये मद्य, मांस आदि का सेवन करता है।
२. ज्ञाति-बल-स्वयं अजेय होने के लिये स्वजन सम्बन्धियों को शक्तिमान बनाता है स्वजन वर्ग की शक्ति को भी अपनी शक्ति मानता है 1
३. मित्र- बल – धन प्राप्ति तथा प्रतिष्ठा सम्मान आदि मानसिक तुष्टि के लिये शक्ति को बढ़ाता है ।
४. प्रेत्य-बल
५. देव - बल - परलोक में सुख पाने के लिये तथा देवता आदि को प्रसन्न कर उनकी शक्ति पाने के लिये यज्ञ, पशुबलि, पिण्डदान आदि करता है।
६. राज-बल—राजा का सम्मान एवं सहारा पाने के लिये कूटनीतिक चालें चलता है, शत्रु आदि को परास्त करने में सहायक बनता है ।
७. वीर - बल – धन प्राप्ति तथा आतंक जमाने के लिये चोर आदि के साथ है
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८. अतिथि-बल
९. कृपण-बल
१०. श्रमण-बल — अतिथि- मेहमान, भिक्षुक आदि, कृपण (अनाथ, अपंग, याचक) और श्रमण - आजीवक, शाक्य तथा निर्मन्थ इनको यश, कीर्ति और धर्म पुण्य की प्राप्ति के लिये दान देता है
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गठबन्धन करता
चोर एवं दस्यु मकानों में सेंध लगाकर चोरी भी करते थे । दण्ड के रूप में अपराधी के लिये कारागार में डालने की व्यवस्था थी । अपराध के अनुसार अङ्ग छेदन की प्रथा भी थी ।
प्रस्तुत समग्र विवेचन समाज की सामाजिक परिस्थितियों एवं समाज की व्यवस्थाओं का प्रतिपादन करने वाला है। समाज और समाज की संस्कृति का लेखा-जोखा विस्तार से आचारांग वृत्ति में प्रतिपादित किया गया है। उसी के अनुसार कुछ पक्षों को देखने का प्रयास समाज और संस्कृति के पक्ष को प्रतिपादित कर सकेगा। मूलतः आचारांग का समाज श्रमण समाज और गृहस्थ समाज है । श्रमण जो कुछ भी समाज में घटित होता है, उनके समाधान के लिये न्यायाधीश नहीं बन जाते हैं, वे तो सदैव समभाव की प्रवृत्ति को लिये हुए धार्मिक जीवन से आगे बढ़ते हैं, समाज को भी यही दृष्टि प्रदान करते हैं जिससे समाज का सामाजिक वर्ग अच्छे-बुरे का परिज्ञान करके सात्विक प्रवृत्ति की ओर अग्रसर हो सके, ऐसा प्रयत्न करते हैं ।
सांस्कृतिक मूल्यों में नगर, नदी, पर्वत, न्याय व्यवस्था, राजनीति व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, दण्ड व्यवस्था आदि सब कुछ हमारी संस्कृति के पूर्व में विद्यमान
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आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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