________________
1
आचारांग वृत्ति में श्रमणों के स्वरूप, भेद एवं उनके द्वारा ग्रहण करने योग्य उपकरणों आदि का भी उल्लेख किया गया है। श्रमण निर्ग्रन्थ वैराग्य के कारण दीक्षा विधि, निष्क्रमण, श्रमण संघ, व्रत, नियम, तपस्या, जिन कल्प, स्थविर कल्प, निर्ग्रन्थ श्रमणों के आहार, आहार-दोष, उपसर्ग, गमनागमन, उपाश्रय, स्थान आदि का भी आचारांग वृत्ति में विवेचन हुआ है । इसमें श्रमण के निषिद्ध योग्य कर्मों आदि का भी विवेचन है। आचारांग सूत्र के नवें उपधान सूत्र में विहार क्षेत्र के मार्ग में होने वाले विविध प्रकार के उपद्रवों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुत स्कन्ध में श्रमण- श्रमणियों की सम्पूर्ण आचार व्यवस्था का विधिवत उल्लेख करते हुए वृत्तिकार ने श्रमण की आहार शुद्धि, स्थान, गति, भाषा, आदि के विवेक एवं आचार विधि की परिशुद्धि का विस्तार के साथ उल्लेख किया है । ३४ इस तरह श्रमण समाज का विवेचन वृत्तिकार की दृष्टि से आचार की महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्थापित करने वाला है, क्योंकि आचार / चरण/ क्रिया ज्ञान गुण है और मोक्ष का साधन है । ३५
२. गृहस्थ समाज
आर्य और अनार्य – इन दो भागों में विभक्त गृहस्थ समाज था । अनार्य अनाचारी थे। वे हिंसक प्रवृत्ति वाले थे । ३६ वे अलग-अलग जनपदों में विभक्त थे । आर्य सज्जन प्रवृत्ति वाले थे, जो सदैव जीवों की रक्षा करते थे । आचारांग सूत्र में गृहस्थ को गाहावही, (गाथापति) शब्द से अभिहित किया गया है । वृत्तिकार ने उसे गृहस्थ नाम दिया है। गृहस्थों में गाथापति की पत्नी, गाथापति की बहिन, गाथापति का पुत्र, गाथापति की पुत्री, गाथापति की पुत्रवधू, धाई, दास, दासी, कर्मकार, आदि को रखा गया है । ३७
गृहस्थ को आगार, सागार भी कहा जाता है । " गृहस्थ भी विविध कुलों में विभक्त थे। उच्च कुल और नीच कुल । इसके अतिरिक्त गाथापति के कुलों का भी निर्देश है । ३९ गाथापति कुलं श्रावक के व्रतों को पालन करते थे । वह श्रमणोचित्त क्रियाओं को जानते थे । उनकी व्यवस्था एवं उनके संरक्षण में सदैव प्रत्यनशील रहते थे । आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में जहाँ भिक्षु एवं भिक्षुणी का उल्लेख हुआ है वहाँ गाथापति और गाथपति के कुल का भी उल्लेख किया गया है । वे पाँच अणुव्रत, तीन ग्रुण-व्रत, चार दिशा-व्रत । इन बारह व्रतों का पालन करते हुए गृहस्थ धर्म का निर्वाह करते थे। गृहस्थ को श्रावक भी कहते हैं । ४१ देश, काल एवं कुल की मर्यादाओं के साथ वे सुख का अनुभव करते हैं। T
शासन व्यवस्था
आचारांग सूत्र में आचार सम्बन्धी सूत्रों की तरह शासन व्यवस्था सम्बन्धी सूत्रों का उल्लेख नहीं है । परन्तु आचारांग सूत्र के वृत्तिकार ने कुछ दृष्टान्तों के आचाराङ्ग - शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
१८३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org