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जो कुछ भी यत्न करते हैं वह उत्कृष्ट होता है, इसलिये वे यति हैं । २४ उन्हें वीर / पराक्रमी, साधना में आने वाले समस्त विघ्नों पर विजय पाने वाला भी कहा जाता | वे इन्द्रिय और मन को विवेक द्वारा निग्रह करते हैं, इसलिये संयमी हैं । सदा जागृत एवं विषयों की प्रवृत्ति पर रहित होते हैं । इसलिये वे अप्रमत्त हैं । वे खेदज्ञ (निपुण — निजस्वरूप को जानने वाले) हैं । २५
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श्रमण को मुमुक्षु६ और मुनि भी कहते हैं । जो कर्म समारम्भ/ हिंसा के कारण है, इन्हें जो जान लेता है, वही, परिज्ञातकर्मा है, मुनि है । मुनि की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है कि जो जगत की त्रिकाल अवस्था को जानतें हैं, उसका मनन-चिन्तन करते हैं, वे मुनि है । “मुनि परिज्ञा है । ” परिज्ञात कर्मा हैं । प्रत्याख्यान के ज्ञाता हैं । २८ वे सम्यक् प्रकार से उत्थान, शयन, चक्रमण आदि क्रियाओं में सतत संयत हैं । २९
विमोक्ष अध्ययन में साधक भिक्षु की प्रत्यनशीलता पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। वे सदैव यत्नपूर्वक विचरण करते हैं, खड़े होते हैं, बैठते हैं, सोते हैं, और अन्य सभी क्रियाएँ भी सावधानीपूर्वक करते हैं । वे सदैव सभी प्रकार के सावंद्य कारणों से युक्त प्रतिज्ञा रूपी मन्दिर (उच्च शिखर, उच्च आसन, उच्च पद) पर स्थित भिक्षाशील भिक्षु हैं। वे भिक्षु कालज्ञ हैं, उचित और अनुचित के ज्ञायक हैं। ध्यान में लीन, अध्ययन, अध्यापन, शास्त्र श्रवण करने वाले तथा उनके रहस्य को प्रतिपादित करने वाले हैं, वे श्रान्त हैं तथा जो सदैव श्मशान, शून्यग्रहों और पर्वतों की गुफा में निवास करते हैं। इस प्रकार से वृत्तिकार की वृत्ति में भिक्षु, साधु, मुनि आदि की व्याख्याएँ कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं ।
श्रमणों के प्रकार
मूलतः आचार्य, उपाध्याय और साधु- ये तीन श्रमणों के भेद विशेष उल्लेखनीय हैं। वृत्तिकार ने आचार्य को अनुयोग को धारण करने वाला कहा है । उपाध्याय को अध्यापक की संज्ञा दी है । साधुओं को यथा-योग्य श्रमणोचित आचरण एवं वैयावृत्ति करने वाला बतलाया है। स्थितिकरण से स्थित स्थविर है । गच्छों के अधिपतिगणी हैं। आचार्य की देशना को गम्भीरता से आदेशपूर्वक ग्रहण कर पृथक् रूप से साधु समूह से विचरण करते हैं, वे गणधर हैं तथा गण अर्थात् गच्छ के कार्य के चिन्तक जो हैं वे श्रमण हैं? (१) आर्य, (२) आर्यप्रज्ञ, (३) आर्यदर्शी – ये तीन श्रमण के विशेषण दिये गये हैं। आर्य का अर्थ है— श्रेष्ठ आचरण वाला अथवा गुणी । आचार्य शीलांक के अनुसार जिसका अन्तःकरण निर्मल हो वह आर्य है। जिसकी बुद्धि परमार्थ की ओर प्रवृत्त हो, वह आर्यप्रज्ञ है। जिसकी दृष्टि गुणों में सदा रमण करे वह अथवा न्याय मार्ग का दृष्टा आर्यदर्शी है । २ श्रमण के अन्य भेद हैं - १. निर्ग्रन्थ (जैन), २. शाक्य (बौद्ध), ३. तापस, ४. गैरिक और ५. आजीवक (गोशालक मतीय)। ३३
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आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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