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________________ जो समीप में रखता है, वह उपधान कहलाता है। वो उपधान दो प्रकार का हैद्रव्य उपधान और २. भाव उपधान । ४९ शंयादि पर सुखपूर्वक शयन करने के लिये सिर के सहारे के लिये जो तकिया रखा जाता है वह द्रव्य उपधान है । चारित्र के लिये ज्ञान, दर्शन और तपश्चरण का अवलम्बन भाव उपधान है। भाव उपधान आत्म-शुद्धि का कारण है । यह कर्मग्रन्थी को अपूर्वकरण से भेदने वाला अनिवृत्तिकरण से सम्यक्त्व में स्थापन करने वाला, कर्म प्रकृति को संक्रमण से, अन्य प्रकृति के रूप में बदलने वाला, शैलेषी अवस्था में सर्वस्था कर्मों का अभाव करने वाला, कर्मों को रोकने वाला, कर्मों को छेदने वाला और कर्मों को भेदने वाला भी है। इसलिये उपधा में सदैव प्रत्यनशील रहना चाहिए ।" इस तरह संयमी साधक निर्ग्रन्थ भाव से युक्त अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्गों में समभाव रखता है । परीषहों को सहन करता है । बाह्य संसार की ओर लक्ष्य न करके आत्मविशुद्धि को लक्ष्य बनाता है । वह भावना, उपयोग आदि से संयम की साधना में रत रहता है 1 ज्ञान-मीमांसा ज्ञान का भारतीय दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसमें ज्ञान, स्वरूप, ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान की क्रिया, ज्ञान की सीमा, ज्ञान की परिस्थितियाँ, ज्ञान के भेद, ज्ञान के विषय आदि पर प्रकाश डाला जाता है । दार्शनिक विश्लेषण में ज्ञान, आत्मा आदि का विस्तार से विवेचन किया गया है। यहाँ ज्ञान की विस्तृत जानकारी न देकर ज्ञान सम्बन्धी कुछ वैचारिक पक्ष प्रस्तुत किये जा रहे हैं । जिन जीवों की विशिष्ट संज्ञा होती है वे अपनी विशिष्ट जाति स्मरण आदि 'ज्ञानयुक्त बुद्धि से या तीर्थंकर के कहने से अथवा अन्य उपदेशकों से सुन कर या जान लेते हैं कि मैं पूर्व दिशा से या अन्य किसी विदिशा से आया हूँ, ५१ यह ज्ञान भी आत्मा का विषय है । इससे मालूम होता है कि आत्मविकास के लिये, आत्मचिंतन की सतत आवश्यकता होती है । सतत आत्मचिंतन के द्वारा जीवों में वह शक्ति-स्फूर्ति हो जाती है, जिसके द्वारा उन्हें आत्मज्ञान विशद् रूप से होने लगता है । वे आत्मा के भूत और भावी पर्यायों को जानने में समर्थ हो जाते हैं । आत्मा की पर्यायों को जानने के तीन साधक हैं १. सहसन्मति या स्वमति, २. परव्याकरण, ३. अन्य अतिशय ज्ञानियों के वचन । ५२ आत्मा के साथ हमेशा रहने वाली सद्बुद्धि के द्वारा कोई-कोई जीव आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है और अपने विशिष्ट दिशा - विदिशा के आगमन को जान लेता है । यद्यपि सामान्य रूप से मतिज्ञान सभी प्राणियों को होता है किन्तु सन्मति या स्वमति आचाराङ्ग- शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन १७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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