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८. आठवीं प्रतिमा में सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास करे। दिन में सूर्य की आतापना ले और रात्रि में नग्न रहे । रात्रि में एक ही करवट से सोवे अथवा चित्त ही सोवे । करवट बदले नहीं ।
९. नवमीं प्रतिमा में दण्डासन, लगुडासन या उत्कटासन लगाकर रात्रि व्यतीत
करे ।
१०. दसवीं प्रतिमा में समस्त रात्रि गोदुहासन या वीरासन में स्थित होकर व्यतीत करना चाहिए ।
११. ग्यारहवीं प्रतिमा में षष्ठभक (बेला) करना चाहिए। दूसरे दिन ग्राम से बाहर आठ प्रहर तक कार्योत्सर्ग करके खड़ा रहे ।
१२. बारहवीं प्रतिमा में अष्ठम भक्त (बेला) करना चाहिए। तीसरे दिन श्मशान में अथवा वन में कार्योत्सर्ग करके खड़ा रहना चाहिए और उस समय जो भी उपसर्ग हो उन्हें स्थिर चित्त से वहन करना चाहिए ।
श्रमण के ग्रासैषणा की शुद्धि के पञ्च दोष
१. संयोजना — जिह्वा की लोलुपता के कारण आहार को स्वादिष्ट बनाने के लिए दूसरे पदार्थों से मिला कर खाना, जैसे—दूध में शक्कर मिलाना आदि । २. अप्रमाण — प्रमाण से अधिक भोजन करना ।
४. इडोल - नीरस आहार करते हुए वस्तु की अथवा दाता की तारीफ करते
हुए खाना |
४. धूम - नीरस आहार करते हुए पदार्थ की अथवा दान की निन्दा करते हुए अरुचिपूर्वक आहार करना ।
५. अकारण - क्षुधा वेदनीय. आदि छः कारणों में से किसी भी कारण के बिना आहार करना ।
इस तरह श्रमण के आचार क्षेत्र के विस्तृत विवेचन को प्रस्तुत करते हुए उनके संस्तारक समाधिमरण आदि पर भी विचार किया गया है । विमोक्ष अध्ययन के उद्देश्कों में भक्त परिज्ञा इंगितमरण और पादपोगमन करने का विधान किया गया है । त्रिमोक्ष अध्ययन के अष्टम उद्देशक में दीक्षा अङ्गीकार करना, शिक्षा प्राप्त करना, सूत्र और अर्थ का ज्ञान प्राप्त करना, बाह्य एवं आभ्यन्तर तप में लीन होना तथा निर्जरा प्रेक्षी" की भावना से युक्त होकर विचरण करना श्रमण की महत्त्वपूर्ण आचार संहिता हैं।
श्रमण को तपोमय जीवन के लिये चारित्र के साथ ज्ञान और दर्शन का अवलम्बन लेना पड़ता है। इससे साधक रत्नत्रय के समीप बना रहता है। साधक
आचाराङ्ग- शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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