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________________ ७. वात्सल्य-स्वधर्मी बन्धुओं से निश्चल, सरल तथा मधुर व्यवहार करना और इतर धर्मावलम्बियों से द्वेष न करना। ८. प्रभावना-दान, तप आदि द्वारा जैन धर्म की प्रभावना करना। चारित्राचार-तीन गुप्ति और पाँच समिति रूप हैं।२९ तपाचार-बारह तप, विशेष हैं-१. बाह्य-तप और २. आभ्यन्तरं-तप। बाह्य-तप-१. अनसन ऊनोदरीका, वृत्ति, संक्षेपण, रसत्याग, कायक्लेश, संलीनता। आभ्यन्तर-तप-प्रायश्चित्त, विनय वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग। वीर्याचार३१- अनेक प्रकार का है। इस तरह आचार के कई भेद गिनाये गये हैं। आचार आत्मशुद्वि का साधन है और मुक्ति का रहस्य है। साधक की दृष्टि से आचार श्रमण संस्कृति की उदात्त भावना रही है। इस संस्कृति में जो आध्यात्मिक चिंतन दिया है, वह आचार तत्त्व को भी महत्त्व देता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये तीन अध्यात्म पद के साधन हैं, जिनका सर्वत्र विवेचन किया गया है। “आचारांग. सूत्र” में कहा गया है कि महावीथी (मोक्षमार्ग) पर अनेक वीर नमीभूत हुए हैं। इसलिये यह मार्ग शंका से रहित है ।३२ जिनके द्वारा यह अनुभूत एवं पराक्षित है वे' निर्भय हैं। जैन आगमों में सच्ची निर्भयता से युक्त व्यक्ति को अनगार कहा जाता है। अनगार जैसा विचारता है, वैसा ही बोलता है। जैसा बोलता है, वैसा आचरण करता है। वह जीवन के प्रपञ्चों से मुक्त गृह त्यागी अनगार अन्त:करण से सरल होता है तथा जो निरन्तर ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र. की आराधना करता है। वह पवित्र आचरण करने वाला अनगार साधक होता है। साधक का एक रूप व्रतों के एक अंश को त्याग करने वाले श्रावक भी३३ आचार के पालक होते हैं। इसलिये जैन आगमों में यत्र-तत्र श्रावक के आचार के विविध पक्षों का निरूपण हुआ है। उपासकदशा में श्रावकों के आचार सम्बन्धी विश्लेषण को व्यवस्थित रूप में प्रतिपादित किया गया है।३४ साधना के उत्कृष्ट अवस्था तक पहुँचने के लिए श्रावक और श्रमण दोनों ही आचार-विचार, व्रत, यम, नियम आदि का पालन करते हैं। उसी दृष्टि से उनके दो भेद हैं-१. श्रावकाचार, २. श्रमणाचार। श्रावकाचार श्रावक को श्रमणोपासक, सागार गार्हस्थ, गृहस्थ भी कहते हैं। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में गाथापति, गाथा कुल आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। श्रावक शास्त्र अध्ययन, धर्म उपदेश, मनन-चिंतन आदि से शुभ आचरण की ओर प्रवृत्त होता है। श्रावकों के ३५ गुणों का उल्लेख किया जाता है ।३५ श्रावक व्रती होता है, वह १६८ आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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