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हिंसादि के साधनों पर भी अंकुश लगाता है। उसका व्यवसाय हिंसायुक्त होते हुए भी ऐसी हिंसा से शून्य होता है जो अधिक हिंसा को उत्पन्न करे।
श्रावक के भेद-१. पाक्षिक, २. नैष्ठिक और ३. साधक श्रावक । श्रावक के व्रत-१. पाँच अणु व्रत, २. तीन गुण व्रत और ३. चार शिक्षाव्रत ।
पाँच अणुव्रत–१. अहिंसाणु व्रत,२. सत्याणुव्रत, ३. अचौर्याणु व्रत, ४. ब्रह्मचर्याणु व्रत और, ५. परिग्रह परिमाणाणु व्रत ।
तीन गुण व्रत-१. दिगवत, २. देशव्रत और ३. अनर्थदण्ड व्रत । शिक्षा व्रत
१. सामायिक व्रत, २. पौषधोपवास व्रत, ३. उपभोग-परिभोग-परिमाण और ४. अतिथि संविभाग व्रत। श्रावक की प्रतिमाएँ
१. दर्शन-प्रतिमा, २. व्रत-प्रतिमा, ३. सामायिक प्रतिमा, ४. प्रोषध-प्रतिमा, ५. सचित-त्याग-प्रतिमा, ६. रात्रि-भुक्ति-त्याग-प्रतिमा, ७. ब्रह्मचर्य-प्रतिमा, ८. आरम्भ-त्याग-प्रतिमा, ९. परिग्रह-त्याग-प्रतिमा, १०. अनुमति-त्याग-प्रतिमा, ११. उद्दिष्ट-त्याग-प्रतिमा। श्रावक के आवश्यक कार्य
१. पूजा, २. वार्ता, ३. दान, ४. स्वाध्याय, ५. संयम और ६. तप। श्रमणाचार:
. आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में मुनि चर्या से सम्बन्धित विवेचन पर्याप्त रूप में हुआ है। द्वितीय श्रुत-स्कन्ध को आचारांग या आचार चूला कहा गया है। वृत्तिकार शीलांक-आचार्य ने आचरांग सूत्र की आचार चूला पर विस्तार से विवेचन किया है। इसके पाँच चूलिकायें हैं। उनमें से चार चूलिकायें आचारांग के अन्तर्गत आती हैं। पाँचवीं चूला आचारांग से पृथक् कर दी गई है, जो निशीथ सूत्र के रूप में विख्यात है। आचारचूला, आचार कल्प, आचार प्रकल्प आदि इसी के सूचक हैं। आचारांग की चूलिका का संक्षिप्त परिचय श्रमणाचार की दृष्टि से इस प्रकार हैप्रथम चूलानाम
उद्देशक १. पिण्डैषणा ११ आहार शुद्धि का प्रतिपादन । २. शय्यैषणा
संयम साधना के अनुकूल स्थान शुद्धि । ३. ईर्येषण
गमनागमन का विवेक । आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
विषय
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