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आचार मीमांसा
तीर्थंकरों की दिव्य देशना द्वादशांग वाणी के रूप में निःसृत हुई । गणधरों
ने सर्वज्ञ कथित अर्थ को सूत्र रूप ग्रंथित किया और आगम रूप में आचारांग सूत्र को सर्वप्रथम स्थान दिया गया । यही सूत्र ग्रन्थ आचार के सभी पक्षों को प्रतिपादित करने वाला आगम ग्रन्थ है । वृत्तिकार ने कहा है कि सब तीर्थंकर तीर्थ प्रवर्तन के आरम्भ में प्रथम आचार का निरूपण करते हैं। इसके अनन्तर क्रमशः अन्य आगम ग्रन्थों का प्ररूपण किया गया । २५
“ आच्यर्यते आसेव्यत इत्याचारः " अर्थात् जो आचरण या सेवन किया जाता है उसे आचार कहते हैं । आचार ही प्रवचन का सार हैं । यही मोक्ष का साधन है 1 इससे चारित्र प्रकट होता है और इसी से अक्षय पद की प्राप्ति होती हैं 1
आचार के नाम
आयार, आचाल, आगाल, आगरा, आसास, आयरिष, आइण्णा, आचार के भेद ७.
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१. नाम आचार—ज्ञ-शरीर और भव्य शरीर, २. द्रव्याचार — द्रव्यों का जानना, ३. भावाचार - लौकिक और लोकोत्तर ।
अन्य प्रकार
ज्ञानाचार - १. काल, २. विनय, ३. बहुमान, ४. उपधान, ५. अनिद्वव, ६. व्यंजन, ७. अर्थ और व्यंजन अर्थ ।
दर्शनाचार
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करना ।
१. निःशंकित – जिन और जिनागम में वर्णित सिद्धान्तों पर किसी भी प्रकार का संदेह नहीं होना, यह आस्था ज्ञानपूर्वक होती है ।
२. नि:कांक्षित—सांसारिक वैभव को प्राप्त करने की इच्छा न होना ।
आमोक्ख
३. निर्विचिकित्सा–स्वभावतः मलिन शरीर में जुगुप्सा का भाव तथा आत्म गुणों में प्रीति की उत्पत्ति ।
४. अमूढ-दृष्टित्व—मिथ्या दृष्टियों की न प्रशंसा करना और न उनकी अनुकम्पा
५. उपगूहनत्व - धर्म को दूषित करने वाले निन्दात्मक तत्त्वों का विसर्जन करना और दूसरे के दोषों को उद्घाटित न करना ।
६. स्थितिकरण - मार्गच्युत व्यक्ति को पुनः मार्ग पर आरूढ़ कर देना । आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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