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मूल प्रकृतियाँ-२४
१. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ५. नाम, ७. गोत्र और ८. अन्तराय। कर्म बन्ध की अवस्थायें
१. बन्ध कर्मों का आत्मा के साथ बँधना। २. उत्कर्षण-बद्ध कर्मों की काल मर्यादा और फल वृद्धि होना । ३. अपकर्षण-काल और फल में शुभ कर्मों के कारण न्यूनता होना। ४. सत्ता-कर्म बन्ध होने और फलोदय होने के बीच आत्मा में कर्म की
सत्ता (अस्तित्व) होना। ५. उदय-कर्म का फल दान । ६. उदीरणा-समय से पूर्व कर्म को जल्दी उदय में ले आना। ७. संक्रमण-सजातीय कर्मों में संक्रमण होना। ८. उपशम–कर्मों को उदय में आने के लिये अक्षम बना देना। ९. निधत्ति-कर्मों का संक्रमण और उदयन हो सकना। १०. निकाचना-कर्मों का प्रगाढ़ बंधन।
कर्म सम्बन्धी विवेचन वृत्तिकार ने अनेक रूपों में प्रस्तुत किया है। राग-द्वेष के कारण विषय उत्पन्न होते हैं, जो विष-तुल्य हैं। विषय संसार के कारण हैं, जिनके कारण जीव सदैव कर्म बन्ध करता रहता है। राग के बन्धन के कारण माता-पिता पत्नी, पुत्र आदि में ममत्व करता है। बाह्य धन सम्पत्ति में आसक्ति रखता है। इस तरह यह प्राणी अनन्त कर्मों का बन्धन करता है। वृत्तिकार ने कर्म बन्ध के आठ, सात, छ: और एक भेद भी गिनाया है। बन्ध, बन्ध के प्रकार, बन्ध की प्रकृतियाँ, वन्ध की स्थितियाँ, बन्ध के अनुभाग और बन्ध के प्रदेशों का लोक विजय अध्ययन में विस्तार से वर्णन किया है।
वृत्तिकार ने कुछ दृष्टान्तों द्वारा समझाया है कि परशुराम ने अपने पिता के अनुराग से द्वेष के कारण क्षत्रियों का सात बार नाश किया। शुभूम ने इसका बदला लेने के लिये २१ बार ब्राह्मणों का विनाश किया। अपनी स्त्री के कहने से चाणक्य ने नन्द वंश का नाश किया। कंस के मारे जाने पर उसका श्वसुर जरासन्ध अपने वल का अभिमान करके कृष्ण से युद्ध करता है और मारा जाता है। अर्थात् राग वन्धन के कारण प्राणी क्या-क्या अकृत्य करता है ?
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आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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