________________
वृत्तिकार ने लोक विजय अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में पाप की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है। “पातयातितीवापाप” अर्थात् जिससे पतन होता है, उसे पाप कहते हैं। इस तरह पुण्य और पाप के विवेचन को भी आचारांग वृत्ति, में प्रतिपादित किया गया है। संवर तत्त्व
आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं।११ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-इन पाँच कारणों से कर्मों का आगमन होता है, उनको निष्क्रिय बना देना संवर है ।१२ संवर के कारण
१. गुप्ति-मन गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति । २. पञ्च समिति-ईर्या-भाषा-एषणा आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापण समिति । ३. धर्मसाधना-क्षमा-मार्दव-आर्जव-सत्य-शौच-संयम-तप-आकिंचन भी और . ब्रह्मचर्य। ४. अनुप्रेक्षा–बारह अनुप्रेक्षा। ५. परीषह–सहिष्णुता ।१४ ६. सम्यक्चारित्र।
७. तप-१. बाह्य तप और २. आभ्यंतर तप । संवर के भेद. १. सम्यक्त्व, २. व्रत, ३. अप्रमाद, ४. अकषाय और ५. योग विग्रह । निर्जरा तत्त्व
संसार का कारण आस्रव है और मोक्ष का कारण निर्जरा है। संवर द्वारा नवीन कर्मों के आगमन को क्रमशः क्षीण करना निर्जरा है। सूत्रकार ने सम्यक्त्व अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में निर्जरा तत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि जो कर्म के आने के मार्ग हैं, वे ही कर्म की निर्जरा के निमित्त बन जाते हैं। और जो कर्म की निर्जरा के निमित्त हैं, वे ही कर्म के आस्रव के निमित्त बन जाते हैं। मिथ्या दृष्टियों के लिये जो पाप के कारण हैं, वे ही तत्त्वदर्शी के लिये कर्म निर्जरा के कारण हो जाते हैं।
वृत्तिकार ने अपनी वृत्ति में सम्यक्त्व को आधार बना कर यह भी कथन किया है कि साधु समाचारी का अनुष्ठान निर्जरा का कारण है, परन्तु अध्यवसायों की मलिनता और कपट के कारण वे ही कर्म बन्धन के कारण हो जाते हैं। जिस आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
१६३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org