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________________ मोहनीय कर्म के बन्ध के हेतु केवली भगवान का वीतराग प्ररूपित शास्त्र का, धर्म का, संघ का और देवों का अवर्णवाद करना दर्शन मोहनीय का कारण है। तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया, तीव्र लोभ से चारित्र मोह का बन्ध होता है 1 आयुष्य कर्म के चार भेद १. नरकायु, २. तिर्यंचायु, ३. मनुष्यायु और ४. देवायु । नाम कर्म के दो भेद १. शुभ नाम और २. अशुभ नाम । गोत्र कर्म के दो भेद जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य का घमण्ड करने से और अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करने से नीच गोत्र बँधता है। आठ मद स्थानों का अभिमान न करने से दूसरों का गुणानुवाद और आत्मनिन्दा करने से उच्च गोत्र का बन्ध होता है। अन्तराय कर्म के बंध के कारण १. दान देते हुए के बीच में बाधा डालना, २ . किसी को लाभ हो रहा हो उसमें बाधा डालना, ३. भोजन पान आदि भोग की प्राप्ति में बाधा डालना, ४ . वस्त्र शयनादि उपभोग योग्य वस्तु की प्राप्ति में रुकावट करना, ५ . कोई जीव अपने पुरुषार्थ को प्रकट कर रहा हो तो उसके प्रयत्न में बाधा डालना । पुण्य और पाप तत्त्व - पुण्य और पाप—ये दो तत्त्व बन्ध तत्त्व के ही भेद हैं, जिसे शुभ और अशुभ भी कहते हैं। शुभ अर्थात् अच्छे कर्मों के कारण से पुण्य बन्ध होता है और अशुभ कर्मों के कारण से पाप बन्ध होता है । आचारांग सूत्र के सम्यक्त्व अध्ययन में इन तत्त्वों का विवेचन हुआ है। इसी विवेचन में वृत्तिकार ने कहा है कि उपयोगपूर्वक की हुई क्रियाओं से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता है । उपयोगपूर्वक क्रियाओं को करने वाला पाप कर्म का भागी नहीं होता है । अनुपयोग से कोई भी काम करने वाला पाप कर्म का भागी है । अतएव प्रत्येक कार्य उपयोगपूर्वक करना चाहिए। उससे पाप से लिप्त नहीं होते हैं। 1 1 असत्प्रवृत्ति, ही पाप कर्म है और पाप का परिणाम ही दुःख है । अतएव दुःखों का अत्यधिक क्षय करने के लिये आरम्भ (असत्प्रवृत्ति) का त्याग करना चाहिए असत्प्रवृत्ति, के त्याग के द्वारा सत्य को जीवन में उतारना चाहिए। असत् प्रवृत्ति, का त्याग करते हुए अगर शरीर शुश्रूषा को छोड़ना पड़े तो भी सत्य का शोधक उसके प्रति किंचित भी ध्यान नहीं देता है| सत्य के सामने देह का क्या मूल्य हो सकता है । " १६२ आचाराङ्ग - शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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