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________________ ज्ञानावरणीय कर्म बन्ध के हेतु १. ज्ञान और ज्ञानवान् की निन्दा करना। २. जिस ज्ञानी से ज्ञान सीखा है, उसका नाम छिपा कर स्वयं ज्ञानी बनने का प्रयत्न करना। ३. ज्ञान की आराधना में विघ्न डालना। ४. ज्ञानीजनों पर द्वेष रखना। ५. ज्ञान और ज्ञानी की आशातना करना और ६. ज्ञानी के साथ विसंवाद करना । दर्शनावरणीय कर्म बन्ध के हेतु १. सुदर्शनी की निन्दा करना। २. जिसके द्वारा दर्शन प्राप्त हुआ है, उसके नाम का गोपन करना। ३. दर्शन की आराधना में विघ्न डालना। ४. सुदर्शनी पर द्वेष रखना। ५. दर्शन और दर्शनी की आशातना करना और ६. सुदर्शनी के साथ विसंवाद करना । वेदनीय कर्म के दो भेद- . १. सातावेदनीय और २. असातावेदनीय। सातावेदनीय के बन्ध के कारण १. द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों की अनुकम्पा करना । २. वनस्पति आदि भूतों की अनुकम्पा करना । ३. पञ्चेन्द्रिय जीवों की अनुकम्पा करना। ४. पृथ्वीकाय आदि सत्वों की अनुकम्पा करना । ५. प्राणियों को दुःखं नहीं पहुँचाना । ६. शोक नहीं करना। ७. झुराना नहीं। ८. पीड़ा नहीं पहुँचाना। ९. परितापना नहीं देना। असातावेदनीय के बन्ध के कारण इनसे विपरीत समझने चाहिए। आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन १६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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