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धर्म द्रव्य
जीव और पुद्गल द्रव्यों को गति प्रदान करने में सहायक धर्म द्रव्य होता है। यह अरूपी द्रव्य है, जो समस्त लोक में व्याप्त है। वृत्तिकार ने 'धर्म' का प्रयोग किया है। अधर्म द्रव्य
जो द्रव्य जीव और पुद्गल को स्थिति प्रदान करता है, वह अधर्म द्रव्य है। अर्थात् अधर्म द्रव्य चलायमान पदार्थों के रुकने में सहायक होता है। यह द्रव्य अरूपी है, और समस्त लोक में व्याप्त है। वृत्तिकार ने अधर्म का प्रयोग किया है। आकाश द्रव्य
जो द्रव्य पदार्थों को अवगाह प्रदान करता है, वह आकाश द्रव्य है। आकाश जीव, अजीव आदि द्रव्यों को अवकास/स्थान प्रदान करता है। पदार्थों को आश्रय देता है। आकाश अनन्त है, परन्तु जितने आकाश में जीवादि अन्य द्रव्यों की सत्ता पाई जाती है वह लोकाकाश है, वह सीमित है। लोकाकाश से परे जो अनन्त शुद्ध आकाश है उसे अलोकाकाश कहा गया है। काल द्रव्य
परिवर्तन का नाम काल है। एक-एक काल प्रदेश समस्त पदार्थों में व्याप्त है। वे परिणमन/पर्याय/परिवर्तन किया करते हैं। परिवर्तन की दृष्टि से काल के दो भेद हैं
१. निश्चय काल-यह अपनी द्रव्यात्मक सत्ता रखता है। वह धर्म और अधर्म द्रव्यों की तरह समस्त लोकाकाश में व्याप्त है।
२. व्यवहार काल इस काल का एक समय है। घड़ी, घण्टा, दिन, सप्ताह, महीना, आवली, उच्छवास, स्तोक, लव, नाली, मुहूर्त, अहोशत्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, पूर्वाग, पूर्वा, न्युतांग, नयूत, आदि काल की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। आस्त्रव तत्त्व
____ कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं। अर्थात् जिन परिणामों से पुद्गल द्रव्य कर्म रूप बनकर आत्मा में आते हैं, उस समय सूक्ष्म से सूक्ष्म पुगल परमाणु आत्मा से चिपट जाते हैं। मन, वचन और काय के परिस्पन्दन से नाना प्रकार की क्रियाएँ होती हैं। उन क्रियाओं से कषायादिक भाव मनोविकार आदि उत्पन्न होते हैं यही आस्रव कहलाता है। कर्म पुद्गलों का ग्रहण करना आस्रव है, जैसे-नदी में पड़ी हुई नौका के छिद्र से पानी का आगमन होता रहता है उसी तरह से कर्म परमाणुओं का आगमन होता है। आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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