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________________ जैन धर्म विविध शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त होने पर भी सभी ने नमस्कार महामंत्र, चौबीस तीर्थंकर, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि षट् द्रव्य, नौ या सप्त तत्त्व, अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद, कर्मवाद आदि को मान्य किया है। इस तरह तात्त्विक रूप से और समन्वय दृष्टि से देखा जाये तो इन विविध शास्त्रज्ञ प्रशाखाओं में कोई विशेष अन्तर नहीं है। आचार में अन्तर होने पर भी तात्विक विचारों में प्रायः समानता है। तत्त्व चिंतन मूलतः दो तत्त्वों की प्रमुखता है-१. जीव तत्त्व और २. अजीव तत्त्व। ये दो तत्त्व जैन धर्म और दर्शन के प्राण हैं। आस्रव, बन्ध, संवर; निर्जरा और मोक्ष-इन पाँच तत्त्वों के मिलाने से जैन तत्त्व के सात भेद बन जाते हैं। पुण्य और पाप की दृष्टि से नव तत्त्व हो जाते हैं। जैन जिन्हें पदार्थ भी कहते हैं। आगम एवं सिद्धान्त ग्रन्थों में इन तत्त्वों की सर्वत्र प्ररूपणा की गई है। आस्रव और बन्ध का विवेचन कर्म सिद्धान्त के अन्तर्गत ही किया जाता है जिसका मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण स्थान माना गया है। संवर और निर्जरा चारित्र विषयक हैं जिन्हें आचार मीमांसा का महत्त्वपूर्ण अङ्ग माना जाता है। मोक्ष तत्त्व जीवन की उत्कृष्टतम अवस्था है जिसमें जन्म और मरण की क्रिया का अभाव हो जाता है। आचारांग वृत्तिंकार ने "जीवाजीवास्रव-बंध-पुण्य-पाप-संवर निर्जरा मोक्षाख्या नव पदार्था” सूत्र के माध्यम से नव पदार्थों का विवेचन प्रस्तुत किया है। तत्त्व विवेचन जीव तत्त्व- जीव का लक्षण चेतना है। इसके दो उपयोग हैं—(१) ज्ञानोपयोग और (२) दर्शनोपयोग। प्राण की दृष्टि से जीव चार प्राणों से प्राणधारी है। यह अतीन्द्रिय है, अमूर्त है, ज्ञान स्वरूप है, जीता है, जीता था और जीवित रहेगा। प्राण, भूत, जीव और सत्व-ये चार शब्द जीव के ही वाचक हैं। प्राण-दस प्रकार के प्राणयुक्त होने से प्राण है। भूत-तीनों कालों में रहने से भूत है। जीव-आयुष्य कर्म के कारण जीता है अतः जीव है। सत्व-विविध पर्यायों का परिवर्तन होते हुए भी आत्म द्रव्य की सत्ता में कोई अन्तर नहीं आता अतः सत्व है। इस तरह से जीव का दार्शनिक दृष्टिकोण अध्याय ३ में प्रस्तुत कर दिया गया है। जीव चेतनायुक्त है, यह सभी दार्शनिक स्वीकार करते हैं। वृत्तिकार ने जीव की एक परिभाषा इस प्रकार दी है—जो जीता है, जीता था और जिएगा वह जीव है। जीव के भेद-प्रभेद आदि का विस्तृत विवेचन अध्याय ३ में कर दिया गया है। १५८ आचाराङ्ग-शीलावृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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