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प्राक्कथन
साहित्य जनचेतना, सामाजिक भावना, वैचारिक दृष्टिकोण और जीवन के विभिन्न आयामों की अभिव्यंजना से पूर्ण होते हैं। इनके चिंतन में संस्कृति की आत्मा प्रवाहित रहती है, जो सार्वदेशिक और सार्वकालिक नियमों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है, इनके अंत:करण में जहाँ आंतरिक भावों-विचारों, नियमों एवं आदर्श गुणों का समावेश होता है, वहीं मानवीय समस्याओं के निदान भी व्याप्त होते हैं। इसलिए साहित्यकारों ने संस्कृति की मूल चेतना को सौंदर्य के रूप में अभिव्यक्त किया, जिसे अनुभूति का भण्डार कहा जाता है और जब यही अनुभूति समाज, देश, राष्ट्र आदि से ऊपर उठकर धर्मचेतना का स्वरूप ले लेती है तब वही साहित्य मानवीय चेतनाओं के आभ्यंतर मूल्यों की स्थापना करने लगते हैं। साहित्य की यह सर्वोत्तम धारा आत्म-संस्कृति की धारा बन जाती है जो कल्याण पथ के सौंदर्य को अभिव्यक्त करती है। ... हृदयगत सौंदर्यानुभूति के प्राणवान् चित्रों को आगम साहित्य में पूर्ण रूप से देखा जाता है, जिसमें जीवन के अध्यात्म मार्ग का स्वस्थ चित्रण उभर कर आता है, इसका रसास्वादन जो व्यक्ति करता है, वह जीवन के श्रेष्ठतम मार्ग को प्राप्त हो जाता है। आगम साधु-साधकों के साधना का विशिष्ट ज्ञान है, यह ज्ञान आदिपुरुष ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थंकर महावीर की देशना के रूप में प्रचलित हुआ। महावीर के उपदेश जो जिस रूप में थे, वे उससे पहले चौदह पूर्वो के रूप में प्रचलित थे, वे ही चौदह पूर्व महावीर के पश्चात् भी प्रचलित रहे परन्तु कुछ समय बाद उसमें कमी आ गई, जिससे हजारों वर्षों का पूर्व ज्ञान क्षीण होने लगा, महावीर के प्रधान शिष्य गौतम आदि ११ गणधरों ने जो जिस रूप में अर्थ था, उसे सूत्र रूप में निबद्ध किया। उन्हीं सूत्र ग्रंथों की विधिवत् व्यवस्थित करने के लिए कई प्रकार की वाचनाएँ हुईं, उन्हें वीर निर्वाण संवत् ९८० में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने सौराष्ट्र के वल्लभी नगर में लिपिबद्ध कराया, वही अंग-उपांग आदि के रूप में प्रचलित हुआ; जिसे पूर्व परम्परा से आगत आगम कहा गया। आगम साहित्य का वर्गीकरण
साहित्य विधा की दृष्टि से इसकी भाषा पर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि जो कुछ भी प्रारम्भ में था। वह प्राकृत भाषाओं में निबद्ध हुआ, इसलिए साहित्यकारों ने भाषा की दृष्टि से इसका विभाजन अग्रांकित रूप में किया
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