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सहयोगी व्यक्तियों को भी नहीं भुलाया जा सकता है, वे सभी साधुवाद के पात्र हैं। महोपाध्याय विनयसागर जी का सहयोग अविस्मरणीय रहेगा। उनको भी मैं साधुवाद देती हूँ।
मैं अपनी आराध्या, आस्था की अकम्प लौ गुरुवर्या परमविदुषी श्री चारित्रप्रभाजी म. सा. का किन शब्दों में आभार प्रकट करूँ, यह समझ में नहीं आता। उनके द्वारा दिये गये सद्ज्ञान के संबल से ही मैं इस कठिन कार्य को पूरा कर सकी हूँ। शोध-कार्य के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मेरे उत्साह को बनाए रखने में तथा अपेक्षित सहायक सामग्री को उपलब्ध कराने में गुरुणी श्री चारित्रप्रभा जी म. सा.का अविस्मरणीय सहयोग रहा है। मेरे चारित्रिक निर्माण में और ज्ञानवर्धन में ये प्रारम्भ से ही मेरी प्रमुख प्रेरणा स्रोत रही हैं। इनके सहयोग के बिना इस शोध-प्रबन्ध की प्रस्तुति कदापि नहीं हो सकती थी।
अन्त में पुनः गुरुणी जी एवं अन्य सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन का सम्पूर्ण श्रेय साहित्यवाचस्पति महोपाध्याय श्री विनयसागर जी को जाता है। उनको एक बार कहा और बड़े ही विनय के साथ उन्होंने प्रकाशन की स्वीकृति प्रदान कर दी। अन्त में उनको भी मैं साधुवाद देती हूँ और दीर्घायु की मंगल कामना करती हूँ।
साध्वी डॉ. राजश्री
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