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________________ पाया, इसका क्या कारण है? इन्हीं भावों में खोकर ज्ञान की पिपासा को और अधिक तीव्र किया। अनुसंधान ने गति दी। सूत्र ग्रंथों को समझने में रुचि जागृत हुई। कार्य सहज हुआ, पर इतना कठिन कि लोहे के चने जैसे चबाना आचारांग और आचारांग की वृत्ति का विषय था। आचारांग-वृत्ति सरल नहीं है। शीलांकाचार्य भी सरल नहीं हैं। वे मँझे हुए महापंडित, ज्ञानी, प्रज्ञावंत आचार्य थे। उन्होंने आगम के गूढ़ रहस्य में अपने आप को रचा-पचा लिया होगा, तभी सभी प्रकार के विवेचन से युक्त वृत्ति को उपस्थित किया। आचारांग की आचार मीमांसा में नियुक्तिकार ने सर्वप्रथम प्रश्न किया 'अंगाणं किं सारो?' तब उत्तर भी ‘आयारो' दिया गया। आयार अर्थात् आचार सूत्र की व्याख्या पृथक्-पृथक् रूप में करके जो विषय का खुलासा किया गया है, वह संस्कृत में होने से कठिन तो अवश्य है परन्तु सत्य एवं तथ्य से परिपूर्ण है। उस वृत्ति में व्याख्या, परिभाषा, व्युत्पत्ति, सूक्ति, भेद, प्रभेद, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आदि का सार तो है ही, अपितु इसके विषय में दार्शनिक विवेचन, धार्मिक विवेचन, नय दृष्टि, प्रमाण मीमांसा, तत्त्व निरूपण एवं विविध प्रकार के सांस्कृतिक मूल्यों का विधिवत्-निरूपण हुआ है। मेरे आराध्यदेव आचार्य सम्राट स्व. श्री देवेन्द्रमुनि जी म. सा. का आशीष ही इस रूप को साकार कर सका। अत: उनके चरणों में श्रद्धावनत हूँ। परम पूज्य गुरुदेव उपाध्याय पुष्कर मुनि जी म. की स्मृति प्रेरक बनकर इस कार्य में सहयोग प्रदान करती रही। मैं गुरु आदेश को शिरोधार्य करके ही इस गुरुतर भार को उठाने में समर्थ हो सकी हूँ। पूज्या परमविदुषी कुसुमवती जी म. सा. का आशीर्वाद चिरस्मरणीय __ मुझ लघु बालिका को धर्म मार्ग पर लगाने का श्रेय परमविदुषी श्रद्धानिधि गुरुवर्या श्री चारित्रप्रभा जी म. सा. को प्राप्त होता है। उन्होंने गिरते हुए अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया और मुझे इस योग्य बना दिया कि दुरूह कार्य भी सुगम हो गया। मैं परम उपासिका चारित्र नायिका, तपोमयी मूर्ति के चरणों में झुककर आशीष की कामना करती हूँ। महोपाध्याय डॉ. श्री राजेन्द्र मुनि जी म. सा. की मुझे इस शोध कार्य में शुभकामनाएँ मिलती रहीं, अतः उनका भी हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ। डॉ. दर्शनप्रभा जी म. का सहयोग भी मुझे समय-समय पर मिलता रहा अत: मैं कृतज्ञ हूँ। साध्वी, विनयप्रभा जी, रुचिका जी, प्रतिभा जी, आभाश्री, मेघाश्री, महिमा जी का सहयोग भी सराहनीय रहा है। मैं श्रमण संघ के इन साधु-संतों की कृपा पात्र रही हूँ अतः उनके प्रति आभार व्यक्त करती हूँ। - डॉ. उदयचन्द जी जैन, उदयपुर की सतत कृपा दृष्टि से इस कार्य को गति मिल सकी है। वे तो इस कार्य के निर्देशक हैं, जिनकी मैं सदैव कृतज्ञ रहूँगी। अर्थ (१३) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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