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स्वकथ्य
आगम की महनीयता के गुण जिस हृदय में प्रविष्ट कर जाते हैं, वह आगमविज्ञ बन जाता है । आगम के रस में निमग्न व्यक्ति महामना भी बन जाता है और वही परमागम के यथार्थ स्वरूप में विचरण करके गोते लगाने लगता है, तब उसे ऐसा पथ मिलता है, जिसकी राहों में सम्यक्त्व की महिमा, ज्ञान की गरिमा और चारित्र की चारुश्री प्रविष्ट करके उस मार्ग की ओर ले जाती है, जो फूलों की सेज बन जाता है । आगम का रस मौन है, इसलिए तो उसे समझ पाना दुरूह भी हैं। पर उस 'दुरूहता के भावों में जब कोई प्रविष्ट हो जाता है तो वह संयमपथगामी साधक बन है
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“मुनेरयं मौन :- संयमो, यदि वा मुनेर्भावः मुनित्वं तदप्यसावेव मौनं वा वाचः संयमनम् । "
वृत्तिकार ने साधक को मौनी कहा है इसलिए मुनि का मौन संयम है। मुनि का भाव भी संयम है। मुझे भी गुरु-गुरुणी परम्परा से संयम प्राप्त हुआ और उसी संयममार्ग में प्रविष्ट होकर मैंने विनीत भाव से योग्य शिष्या बनने की कोशिश की । योग्य शिष्या बन पाई या नहीं, फिर भी मैं जिस मार्ग पर चल रही हूँ, उस मार्ग पर चलते हुए ज्ञान की पिपासा को शांत करने के लिए गुरुणी मैया का अनन्य स्नेह एवं वरदहस्त उच्च शिक्षा की ओर ले जाने में समर्थ हुआ । लौकिक शिक्षा की इतिश्री एम. ए. करने पर हो जाती है, ऐसा मानंकर चुप हो जाती हूँ । ध्यान के सूत्रों में अपने आप को समेटते हुए सोचने लगती हूँ कि पूर्व परम्परा से आगत आगम आप्तवचन हैं, वे ही समत्वदर्शी हैं और वे ही मुझ जैसी तुच्छ साधिका के लिए परमार्थ का बोध कराने में समर्थ हो सकते हैं ।
दीक्षा के बाद दशवैकालिक, नन्दीसूत्र, उत्तराध्ययन आदि आगम पढ़ने का क्रम भी बना रहा । सिद्धांत के सूत्रों ने वीतराग वाणी को और अधिक समझने की प्रेरणा दी । साध्वी चारित्रप्रभाजी म. सा. एवं अन्य संत-सतियों से विचार-विमर्श किया, अपने भावात्मक सूत्र को अभिव्यक्त किया जो स्वाभाविक धर्म था, उसमें गति कैसे हो, किससे हो और किस तरह से फलीभूत की जा सकती है ।
"समियाए धम्मे” जैसा सूत्र हम सुनते थे अब समझाते हैं और इसी के अनुसंधान में प्रविष्ट करके यह पाते हैं कि इस संसार में छह जीव निकाय हैं, वे सभी संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं। ममत्व से घिरे हुए हैं, समत्व क्यों नहीं आ
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