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साथ कई व्यक्ति दर्शन सम्यक्त्व से भी भ्रष्ट हो जाते हैं। यह उनके पतन की उत्कृष्टता है। इसके लिए गोष्ठामाहिल का उदाहरण समझना चाहिए ।
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तृतीय भंग अभाव रूप है । अतएव सूत्र में उसका ग्रहण नहीं है । तीसरे भंग का अर्थ है प्रथम उत्थित नहीं होते हैं और बाद में गिरते हैं । यह असंभव है, जिसका उत्थान नहीं उसका पतन क्या हो सकता है । १२४
पतन उसी का होता है जिसका प्रथम उत्थान हुआ हो। उत्थान के होने पर पतन की चिन्ता हो सकती है। सूर्य उदय होता है तो उसका अस्त भी होता है । जिसका उदय ही नहीं, उसका अस्त क्या होगा ? धर्मी के होने पर ही धर्म का विचार हो सकता है। जब धर्मी (गुणी) ही नहीं तो धर्म (गुण) कहाँ से हो सकता है ? जिसने प्रव्रज्या अङ्गीकार नहीं की वह प्रव्रज्या से पतित कैसे होगा ? अतएव यह तृतीय भंग असद् रूप होने से सूत्र में नहीं दिखाया गया है ।
चतुर्थ भंग “नो पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती” है । इसका अर्थ यह है कि जिसने न तो संयम अङ्गीकार किया है और न जो संयम से पतित है । ऐसे गृहस्थ इत्यादिक अविरती है। सम्पूर्ण विरति के अभाव से गृहस्थ प्रथम भी उत्थित नहीं है और पश्चात् पतनशील भी नहीं है, क्योंकि उत्थान के बाद ही पतन होता है । १२५
श्रद्धा सम्बन्धी चार भंग इस प्रकार हैं— १२६
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१. प्रथम श्रद्धालु और पीछे भी श्रद्धालु, २. प्रथम श्रद्धालु और पीछे अश्रद्धालु, ३. प्रथम अश्रद्धालु और पीछे श्रद्धालु, ४. प्रथम अश्रद्धालु और पीछे भी अश्रद्धालु ।
.: अष्टम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में विधि और निषेध की अपेक्षा से भंग व्यवस्था प्रतिपादित की गई है। १२७ जैन दर्शन का समग्र विवेचन विधि और निषेध पर आधारित है । वस्तु की मुख्यता और गौणता दोनों ही इसके अन्तर्गत किये जाते हैं। विधि और निषेध मुख्य और गौण स्याद्वाद का प्रतिपाद्य विषय है ।
स्याद्वाद
स्याद् और वाद, इन दो शब्दों से स्याद्वाद शब्द बना है। स्याद् के अनेकान्त, विधि, विचार आदि अनेक अर्थ हैं । अनेकान्त का अर्थ ही यहाँ ग्रहण करने योग्य है, जिसमें क्वचित और कदाचित् अर्थ का समावेश है । सम्भव या संशय को इसमें स्थान नहीं दिया जाता है । अनेकान्त अनन्त धर्मात्मक वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान है। इसलिए " स्यात्” शब्द ही निश्चित अर्थ वाला है। संभावना और सापेक्षता उसके साथ जुड़े हुए हैं । १२८
. स्याद्वाद अनेकान्तमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति है। किसी भी एक शब्द या वाक्य के द्वारा सारी की सारी वस्तु का युगपत कथन करना अशक्य होने से प्रयोजनवश कभी एक धर्म को मुख्य करके कथन करते हैं और कभी दूसरे को ।
आचाराङ्ग- शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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