SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४. जीव परतः अनित्य है, काल से आचारांग के मूल सूत्र में भी यही व्यवस्था अपनाई गई है,१२२ जैसे— १. मैंने किया, २. मैंने कराया, ३. मैंने करते हुए को अनुमोदन दिया, ४ . मैं करता हूँ, ५. मैं करवाता हूँ, ६. मैं करते हुए को अनुमोदन देता हूँ, ७. मैं करूँगा ८. मैं कराऊँगा, ९. मैं करते हुए को अनुमोदन दूँगा । पदार्थ त्याग निरूपण सम्बन्धी भंग व्यवस्था इस प्रकार दी गई है – १२३ १. पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती, २. पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती, ३. नो पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती, ४. नो पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती । प्रथम भंग का अर्थ यह है कि कितने ही साधक संसार की अंसारता को जानकर धर्म की आराधना करने के लिए चारित्र मार्ग अङ्गीकार करते हैं और उसे यावज्जीवन यथावत पालते हैं । वे सिंह के समान ही संसार से निष्क्रमण करते हैं और सिंह के समान ही दृढ़ता से संयम का पालन करते हैं । वे प्रबल - भावना से प्रेरित होकर ही चारित्र स्वीकार करते हैं और तदनन्तर भी श्रद्धा संवेगादि द्वारा वर्धमान परिणाम रखते हुए जीवनपर्यन्त प्रबल भावना से ही यथावत पालन करते हैं । इस भंग में गणधरादि का समावेश होता है । यह त्याग समझपूर्वक और सहज होता है । द्वितीय भंग का अर्थ यह है कि कोई साधक प्रथम तो उज्ज्वल परिणामों से दीक्षा अङ्गीकार करते हैं लेकिन पश्चात् वे कर्म की परिणति से हीयमान परिणाम वाले होकर साधना से गिर जाते हैं। वे त्याग में यावज्जीवन नहीं टिकते हैं। दीक्षां प्रसंग पर वर्धमान परिणाम होते हैं, लेकिन बाद में परीषह एवं उपसर्गादि से व्याकुल होने से अथवा पूर्वाभ्यासों की प्रबलता होने से संयम के प्रति अरुचि पैदा हो जाती है और ऐसे साधक प्रव्रज्या से पतित हो जाते हैं। ऐसे साधक प्रथम तो सिंह के समान वीरता के साथ संसार से निकलते हैं और पश्चात् मोहोदय से गीदड़ के समान कायर बन जाते हैं । पूर्वाभ्यासों का असर मनोवृत्तियों पर बहुत अधिक पड़ा हुआ रहता है। यदि साधक अपनी संयम साधना में जरा भी असावधान रहता है तो पूर्वाभ्यासों को वेग मिल जाता है और वे साधक को पुनः संसार की ओर खींचते हैं । असावधान साधक बराबर संसार की ओर खिंचता चला जाता है। इसके लिए नन्दीषेण का दृष्टान्त वर्तमान है। प्रायः यह देखा जाता है पतन जब शुरू होता है तो वह न जाने कहाँ जाकर रुकता है? पतनोन्मुख प्राणी का सब ओर से पतन होता है । ऊँचा चढ़ा हुआ व्यक्ति जब गिरता है तो उसे विशेष चोट लगती है, और वह अधिक नीचे गिरता है। यही हाल संयम से गिरने वालों का है, संयम से पतित होने के साथ ही 1 १४८ आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy