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निक्षेप
। द्रव्य
। क्षेत्र
। काल
नाम
स्थापना
भाव
जाति द्रव्य गुण क्रिया
आगम नो आगम
असदभाव
सदभाव
उपयुक्त तत्परिणत संमवाय संयोग अक्ष वराटक एक जीव - १ १. काष्ठ कर्म
१. स्थित नाना जीव - २
२. चित्र कर्म
२. जित एक अजीव - ३
३. पोतं कर्म
३. परिजित नाना अजीव - ४ ४. लेप्य कर्म
४. वचनोपगत एक जीव - ५ - ५. लयन कर्म
५. सूत्रसम एक अजीव एक जीव - ६ ६. शैल कर्म
६. अर्थसम नाना अजीव नाना अजीव - ७
७. गृह कर्म
७. ग्रन्थसम एक अजीव नाना जीव -८
८. भित्ति कर्म
८. नाम सम नाना अजीव
९. दन्त कर्म
९. घोष सम १०. भेंड कर्म भंग व्यवस्था
जैन दर्शन में प्रत्येक वस्तु विवेचन के लिए भंग को आधार बनाया गया है। एक संख्या रूप प्रकृतियों में प्रकृतियों का बदलना भंग कहलाता है। अथवा संख्या भेद कर एकत्व में प्रकृति भेद के द्वारा भंग होता है। १९ भंग के कई नाम हैं, जैसे-अंश, भाग, पर्याय, हार, विध, प्रकार, भेद, छेद आदि। __भंग का अर्थ स्थिति और उत्पत्ति का अविनाभावी वस्तु विनाश है। जिसके द्वारा विहित अर्थात् निरूपित किया जाता है। वह अङ्ग विधि कहलाती है जहाँ जुदे-जुदे भाव कहे जाते हैं वहाँ भंग होता है ।१२०
आचारांग सूत्र में सर्वत्र भंग व्यवस्था को देखा जा सकता है, जैसे१. जीव स्वतः नित्य है, काल से २. जीव स्वतः अनित्य है, काल से ३. जीव परत: नित्य है, काल से आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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