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मुख्य धर्म को सुनते हुए श्रोता को अन्य धर्म भी गौण रूप से स्वीकार होते हैं। उनका निषेध न होने पावे, इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ “स्यात्" या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता है । १२९
स्यात्वाद को भिज्जवाद ३° और भंजनावाद१३१ भी कहा गया है। सप्तभंगी
प्रश्नकार के प्रश्नवश अनेकान्तस्वरूप वस्तु के प्रतिपादन के सात ही भंग होते हैं न तो प्रश्न सात से कम और न अधिक हो सकते हैं। आचार्य शीलांक देव ने जहाँ भंग की व्यवस्था के लिए चार विकल्प दिये हैं वहाँ वस्तु तत्त्व के विषय को स्पष्ट करने के लिए निम्न प्रकार से सप्तभंगी व्यवस्था द्वारा वस्तु के स्वरूप को समझाया है।
१. अप्रत्युपेक्षितमप्रमार्जितम–प्रति लेखन किया हो, प्रमार्जन नहीं। २. प्रत्युपेक्षितमप्रमार्जितम्-प्रमार्जन किया हो, प्रतिलेखन नहीं। ३. अप्रत्युपेक्षितं प्रमार्जितं-प्रतिलेखन, प्रमार्जन दोनों न किये हों। • ४. दुष्प्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं-दुष्पतिलेखित और दुष्प्रमार्जित हो। .. ५. दुष्पत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं-दुष्पतिलेखित और सुप्रमार्जित हो । ६. सुप्रत्युपेक्षितं दुष्षमार्जितं-सुप्रतिलेखित और दुष्षमार्जित हो। ७. सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं-सुप्रतिलेखित और सुप्रमार्जित हो।
आगमों में तीन भंगों की प्रधानता है—(१) अस्ति, (२) नास्ति और (३) अवक्तव्य। आचारांग वृत्तिकार ने सात भंग दिये हैं। व्याख्या प्रज्ञप्ति में सात भंगों का प्रयोग भी हुआ है ।१३३ इस तरह निरपेक्ष और सापेक्ष दृष्टि स्याद्वाद भी है।
आगम युग की अपनी परम्परा रही है, जिस परम्परा ने बौद्धिक जगत को सदैव गतिशीलता प्रदान की है। वस्तु स्वरूपं के प्रतिपादन करने के लिए नये-नये पक्षों को ध्यान में रखकर वस्तु स्वरूप से सम्बन्धित समस्याओं को सुलझाने के लिए तर्कपूर्ण शैली को अपनाया है। आचारांग वृत्तिकार ने आगम युग के प्रथम अङ्ग आगम आचारांग सूत्र पर अपनी दार्शनिक चिंतन की सूझबूझ को हर सूत्र के साथ रखा है। चिंतन के लिए उन्होंने दार्शनिक जगत की जिन शैलियों को अपनाया है, उसमें निक्षेप शैली महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। इस शैली के आधार पर ज्ञान की प्रामाणिकता, आत्मा की सिद्धि एवं प्रश्नोत्तर की दृष्टि ने विषय की गम्भीरता को अधिक स्पष्ट किया है।
शीलांकाचार्य के सम्पूर्ण दार्शनिक विवेचन में दर्शन के सभी पक्ष देखे जा सकते हैं। प्रमाण का स्वरूप, नय के विविध रूप, स्याद्वाद और सप्तभंगी व्यवस्था आदि का चिन्तन स्वतंत्र अनुसंधान के विषय को प्रेरित करता है। परन्तु यह हमारा प्रतिपाद्य विषय न होने से इसकी केवल जानकारी मात्र ही दी गई है। इसका तुलनात्मक अध्ययन जैन न्याय के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकेगा।
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आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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