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अमूर्त है। रूप, रस, गन्ध, वर्ण, स्पर्श इनमें पाया जाता है। इसका स्वभाव गलना, मिलना, मिटना आदि रूप है । धर्म, द्रव्य, जीव और पुद्गलों को चलने में सहायक है और अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल को स्थिति प्रदान करता है । आकाश द्रव्य स्थान देता है और काल परावर्तन में कारण बनता है। लोक की शाश्वत स्थिति है। उसका कभी विनाश नहीं होता है । कोई भी द्रव्य कम नहीं होता है। सभी एक दूसरे के उपकार को करने वाली हैं अर्थात् जैन दर्शन में लोक का उक्त स्वरूप भी है । वृत्तिकार ने लोक विजय अध्ययन में जीव तत्त्व की प्रधानता को ध्यान में रखकर उसका विवेचन किया है ।
प्रमाण
सभी दार्शनिक प्रमाण को किसी न किसी रूप में अवश्य मानते हैं । जैन दर्शन परम्परा में " स्व-परावभासी ज्ञान" को प्रमाण बतलाया है । ८९ आचार्य सिद्धसेन ने यही परिभाषा दी है। उन्होंने कहा है जो स्व-पर- प्रकाशी और बाध वर्जित ज्ञान है वह प्रमाण है । अर्थात् जिसके द्वारा अर्थ का ज्ञान हो, वह प्रमाण है । संशय और विपर्यय प्रमाण नहीं हैं ।
बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक आदि दार्शनिकों ने प्रमाण सम्बन्धी परिभाषा दी है। बौद्ध दर्शन में अविसम्वादि ज्ञान को प्रमाण माना है । ° नैयायिकों ने अर्थोपलब्धि के हेतु को प्रमाण माना है । " पण्डित कैलाशचन्द शास्त्री ने जैन न्याय में प्रमाण के विविध लक्षणों के बाद सम्यक ज्ञान को प्रमाण कहा है। ९२
वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने प्रमाण को सम्यक् माना है । १९३
प्रमाण का फल
जैन दर्शन ज्ञान को प्रमाण का फल माना गया है । वृत्तिकार ने ज्ञान के विविध सक़ल पदार्थों का ज्ञान कराने वाला कहा है । ४ यह अज्ञान की निवृत्ति में कारण होता है । इसलिए ज्ञान को प्रमाण का फल माना गया है ।
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प्रमाण के भेद
मूलत: प्रमाण के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । १५ अन्य दार्शनिकों ने प्रमाणों के भेद इस प्रकार माने हैं। मीमांसक ने - ( १ ) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) आगम, (४) उपमान, (५) अर्थापत्ति और (६) अभाव — ये छः भेद माने हैं। नैयायिक ने (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान और (३) शब्द - इन तीन प्रमाणों को माना है। वैशेषिक और बौद्ध दो प्रमाण मानते हैं - ( १ ) प्रत्यक्ष और (२) अनुमान, तथा चार्वाक एक प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है । ९६
वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने भी प्रमाण के दो भेद किये हैं - ( १ ) प्रत्यक्ष प्रमाण और (२) परोक्ष प्रमाण । १७ पृथ्वीकाय के विवेचन में वृत्तिकार ने प्रत्यक्ष और परोक्ष
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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