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________________ जो शब्द आदि के विषय हैं, वे संसार के मूल कारण हैं। जो संसार के मूल कारण हैं, वे विषय हैं। मेरी माता, मेरे पिता, मेरे भाई, मेरी बहिन, मेरी पत्नी, मेरी पुत्री, मेरी पुत्रवधू, मेरे मित्र, मेरे स्वजन, मेरे कुटुम्बी, मेरे परिचित, मेरे हाथी-घोड़े-मकान आदि साधन, मेरी धन-सम्पत्ति, मेरा खानदान, मेरे वस्त्र आदि सभी प्रपञ्च मेरे हैं । इस तरह की आसक्ति का नाम लोक है। '३ माता-पिता आदि का सम्बन्ध बाह्य लोक है । बाह्य लोक से आसक्ति ममता, स्नेह, वैर, अहंकार आदि जो भाव उत्पन्न होता है, वह आभ्यन्तर संसार है । इस तरह यह संसार दो प्रकार का है । द्रव्य संसार और भाव संसार की अपेक्षा से भी संसार के दो भेद किये गये हैं 1 वृत्तिकार ने लोक को प्राणियों का समूह भी कहा है, इसलिए उन्होंने “लोक” प्राणिगणः ऐसे शब्द का प्रयोग किया है । ४ एक, दो, तीन, चार और पञ्चेन्द्रिय जीव राशि का जहाँ स्थान है, उसे भी लोक कहा है । ८५ लोक का महत्त्व - जैन, वैदिक और बौद्ध दर्शन आदि ने लोक को जिस रूप में प्रस्तुत किया है, वह आज के आधुनिक वैज्ञानिकों को भी मान्य हैं। सभी की मान्यताएँ भिन्न-भिन्न होती हुई भी कुछ अंशों में मिलती हैं । लोक का आकार-प्रकार जैन और वैदिक भूगोल काफी अंशों में मिलता है। विष्णु पुराण में चूड़ी के आकार का लोक बतलाया है। जो एक द्वीप से अन्य द्वीप की अपेक्षा विस्तार वाले हैं। बौद्ध मत में भी जिस लोक की कल्पना की गई है वह भी वलयाकार ही है।८६ जैन दर्शन में इसे ऊर्ध्व लोक, मध्य लोक और अधोलोक के रूप में विभाजित कर इसका आकार वलयाकार बतलाया है । आचारांग वृत्तिकार ने लोक अर्थात् संसार के विषय में अलग-अलग दृष्टि से प्रकाश डाला। भेद की उपेक्षा से उसके दो भेद किये हैं—-द्रव्य लोक और भाव लोक । सम्बन्ध की अपेक्षा से बाह्य संसार और आभ्यन्तर संसार – ये दो भेद किये हैं । द्रव्य क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा से संसार के पाँच भेद किये हैं । ७ कर्म की अपेक्षा से द्रव्य कर्म और भाव कर्मरूप संसार माना है । कषाय की अपेक्षा से चार प्रकार का संसार माना है ।" इस प्रकार संसार अर्थात् लोक के विषय में वृत्तिकार ने लोक विजय अध्ययन में पर्याप्त प्रकाश डाला है 1 लोक अर्थात् विश्व छः द्रव्यों के समुदाय को माना गया है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये छः द्रव्य सभी आगमों में प्रतिपादित कि गए हैं। जीव चैतन्य युक्त है । उसकी नाना योनियाँ हैं । अजीव अर्थात् पुद्गल १३८ आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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