________________
I
अजीव द्रव्य का भी अनादिनिधनपना सिद्ध होता है। जीव और अजीव के संयोगी तत्त्व, धर्म-द्रव्य और अधर्म-द्रव्य हैं । इन द्रव्यों के कारण ही जीव और पुद्गल गति या विराम को प्राप्त करते हैं । गति और विराम होने पर आत्मा को या अजीव द्रव्य को स्थान भी चाहिए इसलिए स्थान प्रदान करने वाला द्रव्य आकाश ही काल की क्रिया, अपनी गति और स्थिति को इन्हीं द्रव्यों के होने पर बनाये रखता है T
जीव की विविध प्रमाणों से पुष्टि -
जीव का अस्तित्व अनेक प्रमाणों से सिद्ध है । जीव स्वसंवेदन रूप है, और स्वसंवेदन आत्मा का गुण है। मैं हूँ, इसमें “मैं” शब्द आत्मा के लिए प्रयुक्त होता है। यदि यह कहा जाए कि “मैं” शब्द आत्मा की नहीं, अपितु शरीर की पुष्टि करता है तो यह कथन तर्क-संगत नहीं है, क्योंकि मैं शरीर हूँ ऐसा प्रयोग किया ही नहीं जाता है। बल्कि यह कहा जाता है कि मेरा धन है, वह मेरा शरीर है । शरीर का अधिष्ठाता आत्मा है । यह प्रमाण द्वारा सिद्ध है । ६४
1
अनुमान द्वारा भी जीव की सिद्धि की जाती है। इस शरीर को ग्रहण करने वाला कोई न कोई द्रव्य है; क्योंकि यह शरीर कफ, रुधिर अङ्गोपांग आदि का अन्न आदि की तरह परिणाम मात्र है। जैसे अन्न को ग्रहण करने वाला भी कोई द्रव्य है 1 वही द्रव्य जीव तत्त्व है, या आत्म तत्त्व है । ६५
पृथ्वीकाय आदि में जीव
1
जीव/ आत्मा के अस्तित्व की तरह पृथ्वीकाय जीव, जलकाय जीव, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय में भी जीव हैं । इस जगत में कई प्रकार के जीव हैं। सभी चैतन्य हैं। जिस तरह मनुष्य का जीव नाना प्रकार के कर्मोदय से छोटे-बड़े आकार को ग्रहण करता है, उसी तरह पृथ्वी, जल आदि सूक्ष्म जीवों की भी नाना प्रकार की आकृति है । अतः वे सभी चैतन्यं सम्पन्न हैं । ६६
वृत्तिकार ने सर्वत्र पृथ्वी, जल, तेज, वायु आदि के विषय को प्रतिपादित करते हुए उसकी चेतना का भी विवेचन, प्रमाण, नय, निक्षेप आदि की दृष्टि से प्रतिपादन किया है। कई विचारक जलकाय को चेतनाशून्य मानते हैं । उसका अपलाप करते हैं । दूध, घी की तरह उसका विवेचन करते हैं। जिस तरह घी, दूध चेतना रहित होते हैं उसी तरह जल भी चेतनारहित है । उनका यह कथन ठीक नहीं है; क्योंकि उपकरण मात्र से वे अजीव हो जाते हैं तो हाथी आदि की भी सवारी के उपकरण हैं इसलिए वे भी उचित होने चाहिए; किन्तु वे सचेतन हैं उसी तरह जलकाय उपकरण होने पर भी सचेतन है ।
१३४
Jain Education International
आचाराङ्ग- शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org