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मानता है परन्तु ज्ञान आत्मा से अलग है । न्याय दर्शन ज्ञान को आगन्तुक गुण मानता है अर्थात् उसका कहना है कि आत्मा ज्ञान का अधिकरण / आश्रय है । ५९. न्याय एवं वैशेषिक दर्शन की तरह सांख्य दर्शन भी ज्ञान को आगन्तुक गुण मानता है। मीमांसक-दर्शन का कथन है कि आत्मा ज्ञान का अनुभव करता है । इस तरह ज्ञान के विषय में भारतीय दर्शन की अपनी-अपनी दृष्टि है । जीव की प्रामाणिकता
जीव है, इस बात को सभी दर्शन स्वीकार करते हैं । इसकी सिद्धि के लिए आगम प्रमाण, आगम अनुमान प्रमाण, स्मृति, तर्क, प्रत्यभिज्ञान आदि के द्वारा सिद्ध करते हैं। जीव नित्य है, शाश्वत है, उपयोगस्वरूप है, कर्ता है, भोक्ता है, शरीर प्रमाण है, अमूर्तिक है, संसार में रहता है संसार से मुक्त होता है और मुक्त होने के कारण वह जीव ऊर्ध्वगमन को प्राप्त होता है । अहं या अन्य किसी न किसी रूप में जीव है, उसका निषेध नहीं किया जा सकता है- 1
जीव की व्यापकता
जीव के भेद एक से लेकर कई किये गये हैं । ६° पृथ्वी से लेकर सम्पूर्ण स्थावर काय तक वह एकेन्द्रिय रूप में है तथा दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय असंज्ञी की अपेक्षा से भी जीव भेद आगमों में गिनाये जाते हैं। दो इन्द्रिय आदि जीवों की व्यापकता कहाँ-कहाँ तक है और किस रूप में है इन सभी का उल्लेख भी आगमों में किया जाता है ।१ संज्ञी जीव भी कई प्रकार के होते हैं । मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारकी आदि मोटे रूप में संज्ञी हैं । अन्य भारतीय दर्शनों में भी इन सभी की व्यापकता का विवेचन है। ये लोक में सर्वत्र हैं । जहाँ तक गति है, वहाँ तक जीव जाता है। लोक अन्तिम लोकाकाश तक इसका स्थान है । वहाँ तक ही इसकी स्थिति है
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जीव की नित्यता
जीव नित्य है; क्योंकि वह किसी न किसी रूप में अवश्य रहता है । परन्तु केवल नित्य या अनित्य का कथन जैन दर्शन की दृष्टि में नहीं है। जैन दर्शन की दृष्टि से जीव किसी अपेक्षा से नित्य है और किसी अपेक्षा से अनित्य है । १३ जीव नित्य ही नहीं है, या अनित्य ही नहीं है । वह तो नित्य भी है— सभी पर्यायों की अपेक्षा से और अनित्य भी है एक पर्याय से दूसरी प्राप्ति के कारण ।
जीव की अनादिनिधनता
जैन दर्शन जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - इन छः द्रव्यों के समुदाय को संसार या विश्व या लोक कहता है। कोई भी द्रव्य कम नहीं हो सकता। सभी का अपना अस्तित्व है। जीव की अनादिनिधनता के साथ
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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