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________________ उक्त चार भंग जीव के अस्तित्व को काल की अपेक्षा से नित्य और अनित्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। साधक को संसार की असारता को बतलाने के लिए यही पद्धति अपनाई है। १. जे पुखुट्टाई नो पच्छानिवाई। पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती। २. जे पुबुट्ठाई पच्छानिवाई। पूर्वोत्थायी पश्चन्निपाती। ३. जे नो पुबुट्ठाई नो पच्छानिवाई । नो पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती। ४. सेऽपि तारिरिए सिया, नो पूर्वोत्थायी नो पश्चान्तिपाती।४२ १. मैंने किया. २. मैंने कराया, ३. मैंने करते हुए को अनुमोदन किया, ४. मैं करता हूँ, ५. मैं करवाता हूँ, ६. मैं करते हुए को अनुमोदन देता हूँ, ७. मैं करूँगा, ८. मैं कराऊँगा, ९. मैं करते हुए को अनुमोदन दूंगा-ये नौ विकल्प दर्शन की पृष्ठभूमि को प्रस्तुत करते हैं। प्राण, भूत, जीव और सत्व-ये चार शब्द जीव के ही वाचक है। शब्द नय की अपेक्षा से इनके अलग-अलग अर्थ भी किये हैं। दश प्रकार के प्राणयुक्त होने से प्राण हैं। तीनों काल में रहने के कारण-भूत हैं। आयुष्य कर्म के कारण जीता है-अतः जीव है। विविध पर्यायों का परिवर्तन होते हुए भी आत्म द्रव्य की सत्ता में कोई अन्तर नहीं आता, अतः सत्व है।४३ वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने निम्न अर्थ किया है प्राण-द्वीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरिन्द्रय जीव । भूत-वनस्पतिक कायिक जीव । जीव–पाँच इन्द्रिय वाले जीव-तिर्यंच, मनुष्य, देव, नारक । सत्व-पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु काय के जीव। वृत्तिकार ने इस तरह से सम्पूर्ण विषय का प्रतिपादन दर्शन के तत्त्वों पर ही किया। जहाँ जैसी आवश्यकता हुई, उस आवश्यकता के अनुसार दर्शन के विविध पहलुओं को अपनाया गया है। वृत्तिकार ने आचारांग सूत्र की गुत्थियों को दर्शानिक दृष्टि से सतत सुलझाया है । जीव तत्त्व का दार्शनिक मूल्यांकन जैन आगमों में जीव तत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। जीव के कई लक्षण आगमों एवं सिद्धान्त ग्रन्थों में मिलते हैं। आचारांग सूत्र के शस्त्र परिज्ञा अध्ययन में जीव की विस्तार से विवेचना की गई है। परन्तु जीव क्या है ? जीव का स्वरूप क्या है? यह कहीं भी उद्घाटित नहीं हो पाया है। परन्तु जीव अर्थात् आत्मा के विषय में चिन्तन करते कहा गया है कि जीव संज्ञावान होता है। संज्ञा के आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन १२९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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